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________________ २१८) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ आश्रय लेना अर्थात् ग्रहण करना और किसका आश्रय छोड़ना-त्याग करना यह निर्णय मुख्य होता है। ऐसे भिन्न-भिन्न उद्देश्यों की पूर्ति को मुख्य रखते हुए दोनों प्रकार के कथन होते हैं। उपरोक्त आधार से संवर-निर्जरा-मोक्ष शुद्ध पर्यायें हैं अत: आत्मा उनका कर्ता है यह वस्तु स्वरूप है। लेकिन ये पर्याय तत्व है और पर्यायें तो अनित्य स्वभावी होती हैं, क्षण-क्षण में बदलती हैं, इनके आश्रय से तो आकुलता अर्थात् राग का ही उत्पादन होता रहेगा। उनको आश्रयभूत मानने से तो मेरे प्रयोजन का घात होता है। अत: मेरा प्रयोजन सिद्ध करने के लिए तो वे हेयतत्त्व अर्थात् परतत्त्व ही हैं, किसी भी प्रकार से स्व एवं उपादेयतत्त्व नहीं माना जा सकता। अत: मेरा प्रयोजन तो त्रिकाली ज्ञायक भाव जो ध्रुवतत्त्व है, मात्र उस ही के आश्रय से अर्थात् उसको ही स्वतत्त्व मानते हुए उपादेय रूप में स्वीकार करने से वीतरागी पर्याय उत्पन्न होती है। अत: मात्र मेरे त्रिकाली ज्ञायक भाव के अतिरिक्त मेरे लिये तो अन्य कोई प्रयोजनभूत नहीं है । शुद्ध पर्याय भी प्रयोजन भूत नहीं है तथा सिद्ध भगवान भी प्रयोजनभूत नहीं हैं। इसलिये प्रयोजन की सिद्धि के लिए तो मेरी शुद्ध पर्यायों को भी पर मानना पड़ता है। अत: अपेक्षाओं को समझ लेने से दोनों ही कथन यथास्थान सत्य भासित होते हैं। उपरोक्त समस्त कथन का तात्पर्य उपरोक्त विषय, मोक्षमार्ग प्रकाशक के पृष्ठ २५० के अन्तिम पैरे में दिये गये परीक्षा करने के विषयों एवं मोक्षमार्ग में जिनके जानने से प्रवृत्ति होती है, उन विषयों में से (१) जीवादिक द्रव्यों व तत्त्वों को स्व-पर के रूप में पहिचानना (२) तथा त्यागने योग्य मिथ्यात्व रागादिक और ग्रहण करने योग्य सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप पहिचानना (३) तथा निमित्त-नैमित्तिक जैसे हैं वैसे पहिचानना । इन तीनों विषयों के स्पष्टीकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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