________________
द्रव्यों व तत्त्वों को स्व-पर के रूप में पहिचाने)
(२१५ लेकिन जिनवाणी में तो अपनी सभी पर्यायों का कर्ता, आत्मा
को भी कहा है तथा पर्यायों को पर भी कहा है वह कैसे? ___“गुण पर्ययवद्र्व्यं ” ऐसा आगम का सूत्र है, उसके अनुसार द्रव्य से पर्याय भिन्न नहीं है और न हो ही सकती है और न की ही जा सकती है। इसप्रकार वास्तव में पर्याय का कर्ता तो द्रव्य ही है, और द्रव्य ही उसका स्वामी है, अर्थात किसी भी प्रकार से वह पर्याय अन्य द्रव्य के द्वारा की जाती है ऐसा कभी नहीं माना जा सकता। ऐसा मानने वाले के लिये तो, वस्तु का स्वरूप सिद्ध करते हुए, इस मान्यता का दृढ़ता के साथ निषेध किया जावेगा तथा किया भी जाना चाहिए। क्योंकि वस्तु स्वरूप की अपेक्षा से तो द्रव्य ही पर्याय का स्व है और आत्मा उसका स्वामी है।
लेकिन मेरा प्रयोजन तो एकमात्र वीतरागता है, वह तो उपरोक्त मान्यता से सिद्ध नहीं होता? इससे विपरीत मेरे द्रव्य को ही राग पर्याय का उत्पादक एवं स्वामी बना रहना पड़ेगा? लेकिन ऐसा मानने से तो वीतरागतारूपी प्रयोजन के उत्पादन का अवसर ही समाप्त हो जावेगा, फलत: संसार का अभाव ही कभी भी नहीं हो सकेगा और मेरे लिये तो मोक्षमार्ग ही बंद हो जावेगा! इसलिए मात्र वीतरागतारूपी प्रयोजन सिद्ध करने अर्थात् प्राप्त करने के लिए ही, मुझे मेरे द्रव्य द्वारा ही उत्पादित पर्याय को भी पर मानकर उससे अपना अपनत्व एवं ममत्व छोड़ना ही पड़ता है। "जैसे २० व्यक्ति एक नाव में नदी पार कर रहे थे, उसमें मेरे पुत्र के साथ मैं भी बैठा था। मेरे पुत्र ने नाव से नीचे पैर लटका रखा था, नदी के एक मगरमच्छ ने आकर उसका पैर पकड़ लिया और खींचने लगा, नाव डूबने लगी, तब मल्लाह ने चिल्लाकर कहा कि इस लड़के को तो मगर छोड़ेगा नहीं, इसलिये लड़के को इसके हवाले करो वरना सबके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org