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________________ २१६) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ सब नदी में डूबेंगे। ऐसी स्थिति में सबकी रक्षा के प्रयोजन हेतु अपने अत्यन्त प्रिय पुत्र को भी अपने ही हाथों से उस मगर के हवाले करना पड़ता है।" इसीप्रकार अपना वीतरागतारूपी प्रयोजन सिद्ध करने हेतु अपनी ही पर्याय को पर मानकर उससे स्वामित्व छोड़ना ही पड़ता है और उस ही समय उन आश्रवादि विकारी पर्यायों को जानने वाली अपनी ही ज्ञानपर्याय, जो कि स्वाभाविक पर्याय है, उसके साथ एकत्व-ममत्व एवं स्वामित्व जोड़ना ही पड़ेगा क्योंकि वह स्वाभाविक पर्याय होने से ज्ञायक के साथ जुड़ी हई है। तब ही अपने द्रव्य में अर्थात् ध्रुव तत्व में अपनत्व और एकत्व हो सकता है। क्योंकि एक साथ दो में स्वामित्व-अपनत्व तथा एकत्व तो रह ही नहीं सकता। इसप्रकार वस्तु स्वरूप की अपेक्षा तो सभी पर्यायों का कर्ता आत्मा ही है लेकिन अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिये स्वाभाविक पर्याय में अपनत्व स्वीकार करते हुए विकारी पर्याय से अपनत्व छोड़ना ही पड़ेगा।। विशेष बात समझने योग्य यह है कि ज्ञान के साथ-साथ ही श्रद्धा गुण भी तो परिणमन कर रहा है। ज्ञान स्व के रूप में जिसको प्रस्तुत करता है, श्रद्धा उस ही में अपनत्व मान लेता है। अपनत्व करने वाला तो श्रद्धा गुण है, वह किसी भी समय पर्यायें बिना तो रह ही नहीं सकता। इसलिए जिसको अपना मानने से आत्मा का प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, उस ही को अपना मानने के लिये, निर्णय तो यथार्थ करना ही पड़ेगा। क्योंकि स्व-ध्रुवद्रव्य एवं स्वपर्याय दोनों ही हर समय विद्यमान सत् हैं, जिस समय पर्याय का उत्पाद होगा, उस ही समय त्रिकाली द्रव्य भी तो विद्यमान ही रहेगा, असत् तो नहीं हो जावेगा ? लेकिन त्रिकाली द्रव्य तो एकमात्र ज्ञानस्वभावी होने से वीतरागता का ही उत्पादक है, अत: मात्र उसको ही स्व मानने से मेरे को वीतरागता प्राप्त हो सकती है। पर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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