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________________ २१४) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ आस्रवादि तत्त्वों को पर कैसे माना जावे तथा क्यों माना जावे ? समाधान :- उपरोक्त निर्णयानुसार जब त्रिकालीधुवतत्त्व-ज्ञायक भावरूप जीवतत्त्व को, स्व के रूप में आत्मा ने स्वीकार किया तो अध्रुव ऐसी पर्याय, चाहे वह विकारी अशुद्ध हो अथवा निर्विकारी-शुद्ध हो, उसको अपने ही आत्मा के प्रदेशों में उत्पन्न होते हुए भी, पर के रूप में ही स्वीकार करना होगा। क्योंकि वे जीवतत्त्व से तो मिलते ही नहीं हैं। उन सभी पर्यायगत भावों को, स्व के रूप में अनादिकाल से मानता चला I I आ रहा हूँ, इसी कारण उनके सुधार करने की चेष्टा करते-करते अनंतभव धारण करते-करते अनादिकाल बीत गया लेकिन उनमें किंचित् मात्र भी सुधार नहीं हो सका, वरन् राग का ही उत्पादन होता रहा । लेकिन मेरा प्रयोजन तो एक मात्र वीतरागता उत्पन्न करना ही था। इन पर्यायगत भावों को अपना मानने से इसके साथ ममत्व छूटता नहीं, तथा मेरा प्रयोजन सिद्ध होता नहीं । मेरे वीतरागतारूपी प्रयोजन की सिद्धी के लिये ही, मेरे ही द्रव्य के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली पर्याय मात्र को, पर के रूप में स्वीकार करना आत्मार्थी को आवश्यक है । लेकिन इसके विपरीत, अपने जीवतत्त्व में स्वपना स्थापन करे बिना ही अगर कोई स्वच्छन्दी जीव, पर्याय में परपना मानकर, पर्याय में ही रत रहे अर्थात् अपनत्व रखे तो मात्र राग काही उत्पादन करता रहेगा और अपने को यथार्थमार्गी मानकर अपने आत्मा का भारी नुकसान कर मिथ्यात्व को और दृढ़ करेगा तथा अपने प्रयोजन से विपरीत कार्य करता हुआ, आत्मा का महान् महान् घात करेगा । क्योंकि विषयों को तो जड़ की क्रिया कहता हुआ, अपनी पर्यायों को पर कहता हुआ, विषयों में ही स्वच्छन्दता पूर्वक लिया रहेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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