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________________ १८०) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ मकान में स्वपनेरूप श्रद्धा कैसे उत्पन्न होगी? इस दृष्टान्त के अनुसार तो स्व एवं पर का स्व में अस्तिरूप ज्ञान होने से मोक्षमार्ग के लिए भेद-विज्ञान के प्रयोजन का ही नाश हो जावेगा, यह तो महान हानि हो जायेगी। अत: निःशंकतापूर्वक यह स्वीकार करने योग्य है कि सिद्ध भगवान की ज्ञान पर्याय में भी स्व-संबंधी ज्ञान अस्ति के रूप में और पर संबंधी ज्ञान नास्ति के रूप में, एक ही समय वर्तता है। यही सर्वज्ञता का स्वरूप है और यही सम्यग्ज्ञान का स्वरूप है। पर की नास्ति करने के लिए विकल्प की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वस्तु ही अनेकान्तात्मक है। अनेकान्त और नय प्रश्न होता है कि जब अनेकान्त द्वारा स्व में पर की नास्ति वर्तती ही है, तब भूतार्थ-अभूतार्थ द्वारा समझकर, नय ज्ञान द्वारा स्व को मुख्य करके पर को गौण करने का अर्थात् मुख्य-गौण करने का प्रयोजन ही नहीं रहता? अत: भेदज्ञान के लिए नय ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं रह जावेगी? समाधान - ऐसा नहीं है । नयज्ञान, स्वभाव का अतिक्रांत करके नहीं वर्तता । अनेकान्त तो ज्ञान की पर्याय का स्वभाव ही है और नयज्ञान का प्रयोग तो मात्र उपयोग में विषय ग्रहण करने के लिए कार्यकारी है। अनादिकाल से, अज्ञानी जीव पर्यायमूढ़ होने से उसका उपयोग पर सन्मुख ही वर्तता चला आ रहा है, इसलिये पर्याय का ही कार्य उसे दीखता है। इसी समय द्रव्य भी उपस्थित है लेकिन वह उसे दीखता ही नहीं है। तो ऐसे जीव को पर्याय का स्वरूप समझकर उसे अभूतार्थ कहकर गौण करने का उपदेश दिया जाता है ताकि वह उस पर्याय को गौण करके देखे तो उसके उपयोग और श्रद्धा का विषय अपना द्रव्य बन जावे और अनादि का अज्ञान नाश हो जावे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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