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ज्ञान- ज्ञेय एवं भेद - विज्ञान )
( १७९
अत: सर्वज्ञ भगवान की हर एक पर्याय में स्वज्ञेय का ज्ञान अस्ति के रूप में एवं उस ही समय परज्ञेयों का ज्ञान नास्ति के रूप में ही वर्तता है । दोनों ही ज्ञेयों का ज्ञान अस्ति रूप हो तो स्व-पर का विभाग ही समाप्त हो जावेगा तथा दो की अस्ति होने से ज्ञप्ति परिवर्तन एवं राग का उत्पादन अवश्यंभावी हो जावेगा ? अतः ऐसा किसीप्रकार भी माने जाने योग्य नहीं है।
अतः उनकी ज्ञान पर्याय भी अनेकातात्मक ही स्वीकार करने योग्य
प्रश्न :- उपरोक्त सिद्धान्त स्वीकार करने से प्रश्न खड़ा होता है जिसकी नास्ति ही है, उसका ज्ञान आत्मा को कैसे हो सकेगा ? जिसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा तो आत्मा किसको जानेगा? इसप्रकार तो सर्वज्ञता स्वीकार करना ही संभव नहीं रहेगा ?
समाधान :- उपरोक्त शंका निर्मूल है, कारण केवली का ज्ञान, ज्ञेय पदार्थों की नास्ति नहीं कर देता । जिसप्रकार ज्ञान तत्व का अस्तित्व है. उसीप्रकार ज्ञेय तत्वों का भी अस्तित्व है। उन पदार्थों के अस्तित्व को तो आत्मा स्पर्श कर ही नहीं सकता । ज्ञान की पर्याय में ही समस्त कार्य, बिना समय भेद के, एक ही समय में, पर में कुछ भी छेड़छाड़ करे बिना अथवा गौण-मुख्य करे बिना ही, सहज रूप से स्वाभाविक तथा स्व एवं पर दोनों का ज्ञान एक साथ होता है । स्व को अस्तिरूप और पर को नास्ति रूप जानता रहता है। नास्ति रूप जानना क्या जानना नहीं होता ? अवश्य होता है हम अपने मिथ्याज्ञान को ही समझें, तो इसमें भी अनेकसन्तता विद्यमान है। जैसे मेरे मकान के अस्तिरूप ज्ञान के समय साथ ही मुझे अन्य मकानों के बारे में नास्तिरूप ज्ञान सहज रूप से वर्तता ही है । अगर उसी समय मेरे मकान के अस्तिरूप ज्ञान में, पर के मकानों का भी अस्तिरूप ज्ञान हो जावे तो, मेरा प्रयोजन क्या सिद्ध होगा ? मेरे
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