________________
१७८)
(सुखी होने का उपाय भाग - ५ आगम, तर्क अनुमान एवं अनुभव सम्मत सिद्ध होता है और ऐसा जानने वाला गान ही सम्यग्ज्ञान एवं वैसा ही श्रद्धान, सम्यकदर्शन सिद्ध होता है। जैसा कि समयसार परिशिष्ट के पृष्ठ ६५० पर तत्-अतत् के बोलों के उपरोक्त स्पष्टीकरण में आचार्य श्री ने कहा है
भगवान सिद्ध की पर्याय अनेकान्त स्वभावी कैसे ?
भगवान सिद्ध की ज्ञान पर्याय का जैसा परिणमन हो रहा है, वैसा ही अपने आत्मा के ज्ञान का स्वभाव स्वीकार करना, सम्यग्श्रद्धा है और वैसा ही ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है ; ऐसा आगम का वचन है। अत: हमको उपरोक्त कथन को, भगवान सिद्ध के ज्ञान की पर्याय अर्थात् केवलज्ञान की पर्याय से समझना चाहिए।
__ आगम का कथन है कि अरहंत-सिद्ध का ज्ञान तो स्व एवं पर समस्त द्रव्यों को, उसकी भूत, भावी, वर्तमान पर्यायों सहित, एक समय में सम्पूर्ण रूप से जानता है, इसही से उनको सर्वज्ञ कहा जाता है। जैसा कि नियमसार गाथा १५९ में कहा है :
“( व्यवहारनयेन् ) व्यवहारनय से ( केवली भगताप) केवली भगवान ( सर्व ) सब ( जानाति पश्यति ) जानते हैं और देखते हैं, (नियमेन ) निश्चय से ( केवलज्ञानी ) केवलज्ञानी ( आत्मानम् ) आत्मा को ( स्वयं को ) (जानाति पश्चति ) जानता है और देखता है ॥ ५९॥"
__इस कथन में किंचित् मात्र भी न्यूनाधिक मानना अथवा शंका करना, अगृहीत मिथ्यात्व का सूचक है। साथ ही यह भी आगम सिद्ध है कि उनकी वह पर्याय भी अनेकान्त स्वभावी है। अत: इसमें हमको अनेकान्त की स्थिति समझने योग्य है।
सिद्ध भगवान की उपरोक्त पर्याय भी अनेकान्तात्मक ही परिणमन करती है। अनेकान्त तो वस्तु का अर्थात् आत्मा एवं ज्ञान का स्वभाव है,
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org