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________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान) (१७७ होता है। वह निमित्त पदार्थ ही तो ज्ञेय कहा जाता है । अत: उपादान की मुख्यता से भी पर पदार्थों के आकारों को जानता है, यही तो सिद्ध हुआ। क्योंकि वह योग्यता परज्ञेयों के आकार ही तो है और निमित्त की प्रधानता से कहा जावे तो भी वे पर पदार्थ हैं ही। अत: कथन में तो पर पदार्थों का ज्ञान हुआ ऐसा ही कहा जावेगा और उनको ज्ञेय अवश्य कहा जावेगा। लेकिन हमको वीतरागतारूपी प्रयोजन सिद्ध करने के लिए अर्थात् रागादि उत्पादन का मूल कारण ऐसी निमित्ताधीन दृष्टि छोड़ने के लिए ज्ञेयों के ज्ञान के कथनों का निश्चय- व्यवहाररूप समझना, अत्यन्त आवश्यक है। ज्ञेयों को जानने में अनेकान्त की स्थिति अनेकान्त तो वस्तु का स्वभाव है । वस्तु अर्थात् आत्मा, जब आत्मा ही अनेकांत स्वभावी है तो उसका हरएक अंश अर्थात् ज्ञान गुण भी अनेकान्त स्वभावी ही है और उस गुण की अंशरूप हर एक पर्याय भी अनेकान्त स्वभावी ही होनी चाहिए। अन्य प्रकार हो ही नहीं सकती। तात्पर्य यह है कि ज्ञान की प्रत्येक समय की पर्याय अनेकान्त स्वभावी ही होती है। वह पर्याय चाहे तो निगोदिया जीव की हो अथवा तो सिद्ध जीव की हो, सभी अनेकान्त स्वभावी ही होती हैं। ऐसी अनेकान्त स्वभावी ज्ञान पर्याय जब भी प्रगट होती है तो अनेकान्तात्मक ही उत्पन्न होती है, ज्ञान का स्वभाव जानने का है तो वह स्व अर्थात् ज्ञान को अस्ति के रूप में तथा पर अर्थात् ज्ञेय को ज्ञान में नास्तिरूप ही जानती हुई उत्पन्न होती है यह तो अनेकान्त स्वभावी उस ज्ञान पर्याय का स्वभाव है। ज्ञेय भी अनेकान्त स्वभावी होने से वे भी ज्ञान के प्रकाशन में तो, जैसे हैं वैसे ही तो आवेंगे, अन्यथा उस ज्ञान को सम्यक् कैसे कहा जा सकेगा, अगर वह पर्याय, ज्ञान और ज्ञेय दोनों को एक ही समय अपने में अस्ति रूप जानेगी तो, न तो ज्ञान ही रहेगा और न ज्ञेय ही रहेगा। अतः ज्ञान पर्याय का अनेकान्तात्मक प्रगट होना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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