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________________ १७६) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ अपनी ज्ञान पर्याय की तत्समय की योग्यता, जिस ज्ञेय को जानने की होती है, मात्र उस योग्यता को ही जानता है, अर्थात् आत्मा के ज्ञान की योग्यता के प्रदर्शन का परिचय कराया जाता है। इसी को आगम में ज्ञेयों का ज्ञान कहा जाता है। वास्तव में यह सब आत्मा की ज्ञान पर्याय का स्वयं का परिणमन है। इसप्रकार आत्मा, परज्ञेयों को जानता है, यह उपचाररूप व्यवहार कथन है। वास्तव में तो आत्मा अपनी ज्ञान पर्याय को ही जानता है, यही निश्चय कथन है। इसप्रकार ज्ञेयों की स्थिति है। जैसा कि उपरोक्त नियमसार के कथन से स्पष्ट है। निष्कर्ष यह है कि ज्ञान का स्व-पर प्रकाशकपना तो स्वभाव है। जैसा कि नियमसार की उपरोक्त गाथाओं से भी स्पष्ट है । स्वभाव में निश्चय व्यवहार तथा उपचार-अनुपचार नहीं लगता। स्वभाव तो वस्तु का प्राण है। जो कथन उपादान की मुख्यता से होता है वह वास्तव में यथार्थ होता है, अत: उसको निश्चय कहा जाता है और उसी समय जो निमित्त होता है उसकी मुख्यता से उपादान के कार्य का भी निमित्त के द्वारा परिचय कराया जाता है, जो यथार्थ नहीं होने पर भी दोनों की समकाल प्रत्यासक्ति होने से उसप्रकार के कथन को व्यवहार कहा जाता है। जो कार्य सम्पन्न हुआ है उसका परिचय दोनों कथनों के बिना हो ही नहीं पाता, इसलिये आगम में, दोनों प्रकार से वस्तु को समझाने की पद्धति है। प्रश्न :- तब ज्ञेय किसको माना जावे ? आपके कथन से तो ऐसा लगता है कि आत्मा पर पदार्थों को जानता ही नहीं है। लेकिन यह बात हमारे अनुभव से एवं आगम से विपरीत लगती है ? । समाधान :- उक्त कथन में ऐसा कहाँ आता है कि पर को जानता ही नहीं है ; जानता तो अवश्य है। जिस समय ज्ञान अपनी पर्यायगत योग्यता को जानता है, उसी समय तो निमित्तरूप परज्ञेय निमित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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