SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान) (१७५ और जब वह ज्ञानमात्र भाव “वास्तव में यह सब आत्मा है" इसप्रकार अज्ञानतत्व को स्व-रूप से ( ज्ञानरूप से ) मानकर-अंगीकार करके विश्व के ग्रहण द्वारा अपना नाश करता है (सर्व जगत को निजरूप मानकर उसका ग्रहण करके जगत् से भिन्न ऐसे अपने को नष्ट करता है) तब उस ज्ञानमात्र भाव का पररूप से अतत्पना प्रकाशित करके (अर्थात् ज्ञान पररूप नही हैं यह प्रगट करके )विश्व से भिन्न ज्ञान को दिखाता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना ( ज्ञानमात्र भाव का ) नाश नहीं करने देता।" अब ज्ञान का कार्य समझने के लिए विचार किया जावे तो यह स्पष्टतया समझ में आता है कि ज्ञान जिसको भी जानेगा वो तो आत्मा से अलग भिन्न ही होगा तभी तो ज्ञान उसको जान सकेगा, अगर वह ज्ञान में ही प्रवेश कर जावेगा तो ज्ञान का ही अभाव हो जावेगा और अगर ज्ञान ज्ञेय को जानते समय ज्ञेय में प्रविष्ट हो जावे तो ज्ञान का ही अस्तित्व समाप्त हो जावेगा। इसलिये नि:शंकतापूर्वक यह स्वीकार करने योग्य है कि न तो कभी ज्ञेय अपना स्व-क्षेत्र छोड़कर ज्ञान में प्रवेश करेगा और न कभी ज्ञान भी अपना स्व-क्षेत्र छोड़कर पर में प्रवेश करेगा। लेकिन दोनों एक दूसरे में प्रवेश किये बिना भी ( भिन्न रहते हुए भी) ज्ञान का ऐसा अद्भुत आश्चर्यकारी स्वभाव है कि वह ज्ञेय को जान तो लेता ही प्रश्न :- गहाँ प्रश्न होता है कि फिर जानने की प्रक्रिया ज्ञान में हो कैसे जाती है। इस प्रश्न के समाधान रूप चर्चा सुखी होने का उपाय भाग ४ के पृष्ठ ११२-११७ तक “आत्मा परज्ञेयों को कैसे जानता है" शीर्षक विषय में विस्तार से कर चुके हैं, पाठकगणों को वहाँ समझना चाहिए। उसमें समयसार एवं प्रवचनसार की गाथाओं के आधार से इस विषय को समझाया है। उसका निष्कर्ष यह है कि वास्तव में आत्मा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy