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________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान) (१८१ अनेकान्त तो ज्ञान का स्वभाव है और नय ज्ञान अपने उपयोग एवं श्रद्धा का विषय परिवर्तन करने के लिए कार्यकारी है। अत: दोनों में कोई प्रकार का टकराव नहीं है, सामंजस्य है। नय ज्ञान द्वारा पर्याय को गौण करके ज्ञान का जो विषय बनेगा, वह द्रव्य अनेकान्त स्वभावी ही है। पर संबंधी ज्ञान को श्रद्धा एवं नास्तिरूप विषय बनाने पर उसमें स्व-पर के द्वैत का अभाव है। ऐसा अद्वैतज्ञान श्रद्धा एवं उपयोग का विषय बनने से, वह उपयोग स्वयं निर्विकल्प परिणम सकेगा। अगर इस उपयोग का विषय, स्व एवं पर दोनों का द्वैत रूप ज्ञान होगा तो वह उपयोग निर्विकल्प कैसे रह सकेगा? नहीं रह सकेगा। अनेकान्त स्वभावी ज्ञान मानने का फल सम्यक् एकान्त की उपलब्धि उपरोक्त प्रकार से जब ज्ञान की प्रगटता ही अनेकान्तात्मक होती है, तब उसमें द्वैत अर्थात् दोपने का अस्तित्व ही नहीं रहता। ऐसे उत्पादन में उस ज्ञान का विषय स्वज्ञेय के अतिरिक्त अन्य को अस्तिरूप जानेगा भी कहाँ से? अर्थात् उस ज्ञान का ज्ञेय भी आत्मा स्वयं ही रहा तथा जानने वाला भी स्वयं ही रहा और ज्ञान तो वह स्वयं है ही, अत: ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय के भेद का भी अवकाश समाप्त हो जाता है। ज्ञान की ऐसी अवस्था को ही “सम्यक् एकान्त” कहा गया है। श्रीमद् राजचंद्र पुस्तक के पृष्ठ ३८२ पर निम्नप्रकार कहा भी है : “अनेकान्तिमार्ग भी सम्यक् एकान्त ऐसे निजपद की प्राप्ति कराने के अतिरिक्त, दूसरे अन्य हेतु के लिए उपकारी नहीं है।" ____ अनेकान्त में दो वस्तु स्व एवं पर ज्ञान के समक्ष होती है, उनको अनेकान्त के आधार से स्व में पर की नास्ति करके, मात्र अकेला स्व ही स्व के रूप में रह जाना, यही सम्यक् एकान्त है। क्योंकि जब तक जान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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