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ज्ञान- ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान )
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जावे ताकि मेरा प्रयोजन तो सिद्ध भगवान को प्राप्त अनाकुलतारूपी सुख है, उसको मैं भी प्राप्त कर, पूर्ण सुखी होकर अनन्तकाल तक परमसुखी बना रहूँ ।
आत्मा की ज्ञान पर्याय का स्वरूप
चेतनालक्षण आत्मा है, वह ही आत्मा के अस्तित्व का परिचायक है | चेतना का अस्तित्व ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है । उस चेतना के कार्य, दर्शनोपयोग एवं ज्ञानोपयोग के द्वारा ही प्रगट होते है । उनमें से दर्शनोपयोग का अति अल्पकाल होनेसे छद्मस्थ के ज्ञान की पकड़ में नहीं आता। इसलिये जिनवाणी में भी सर्वत्र ज्ञान के रूप में ही आत्मा को सम्बोधित किया गया है। आत्मा के सर्वगुणों के कार्य भी ज्ञान के द्वारा ही प्रसिद्ध अर्थात् ज्ञात होते हैं। संक्षेप में कहो तो आत्मा की और आत्मा में बसे अनन्त गुणों की व उनके कार्यों की जानकारी भी एक ज्ञान के द्वारा ही होती है । आत्मा के ज्ञान, श्रद्धा, चारित्रादि गुणों के विकृत एवं अपूर्ण परिणमनों की अथवा उनके अविकृत एवं पूर्ण विकास को प्राप्त गुणों के कार्यों की जानकारी अर्थात प्रसिद्धि भी ज्ञान से ही प्रकाशित होती है । इसलिये हम भी इस प्रकरण में आत्मा की शुद्धि, अशुद्धि एवं पूर्णता, अपूर्णता की एवं आत्मा की संसारदशा एवं सिद्ध दशा की चर्चा भी ज्ञान के माध्यम से ही करेंगे ।
सिद्ध भगवान से विपरीत संसारी जीव का ज्ञानोपयोग
संसारी जीव के ज्ञान एवं दर्शन गुणों का विकास अतिअल्प अर्थात् प्राप्त क्षयोपशम जितना ही प्रगट होता है। जबकि सिद्ध भगवान का ज्ञान एवं दर्शन गुण क्षायिक हो जाने से, सम्पूर्ण विकास को प्राप्त होकर केवलज्ञान एवं केवलदर्शन रूप प्रगट हो जाता है। फलतः संसारी जीव नहीं जानने में आये हुए पदार्थों को जानने की इच्छा होते हुए भी, क्षयोपशमानुसार अतिअल्प विषयों को ही जान पाता है । अत: वह तो
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