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________________ १५८) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ “लोकालोक लखिकै सरूप में सुथिर रहै, विमल अखंड ज्ञानजोति परकासी है। निराकाररूप शुद्धभाव के धरैया कहा, सिद्ध भगवान एक सदा सुखरासी है।। ऐसौ निजरूप अवलोकत है निहचै मैं, आप परतीति पाय जगसौ उदासी है। अनाकुल आतम अनूप रस वेदतु हैं, अनुभवी जीव आप सुख के विलासी हैं।। २२ ।। उपरोक्त कविता में सिद्ध भगवान के केवलज्ञान का स्वरूप बताया है कि “वह लोकालोक को जानते हुए भी आत्मा में स्थिर रहते हैं अर्थात् उनका उपयोग उस लोकालोक की तरफ जाता ही नहीं है।" इस बात को समझना कठिन लगता है, क्योंकि ऐसा लगता है कि उपयोग उस तरफ गये बिना उनका जानना कैसे हो सकेगा ? और पर की ओर उपयोग होगा तो अन्तर्मुखाकार उपयोग कैसे रह सकेगा, उपयोग आत्मा में स्थिर हुए बिना, आत्मा को निराकुलता रूपी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती, कारण परमुखापेक्षी ज्ञान के विषय तो अनेक रहेंगे ही, अत: ज्ञप्ति परिवर्तन अवश्यंभावी हो जाने से आकुलता उत्पन्न होना अनिवार्य हो जावेगा। इसलिये भी सिद्ध भगवान का उपयोग सर्वथा अन्तर्मुखाकार होना ही सिद्ध होता है तथा इसी कारण उनकी आत्मा परमसुखी है। निष्कर्ष यह है कि सिद्ध भगवान की आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए प्रयोजनभूत विषय तो मात्र इतना ही रह जाता है कि उपरोक्त प्रकार से आत्मा के ज्ञानोपयोग को आत्मसन्मुख कैसे किया जावे। उसके कारणरूप श्रद्धागुण एवं चारित्रगुण की विपरीतता आदि को समझकर अपनी आत्मा को भी सिद्ध भगवान बनने के मार्ग का पथगामी बनाया For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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