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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान)
(१५७ तो उपरोक्त गुण पूर्णता को प्राप्त होकर पूर्णशुद्ध हो गये हैं और संसारी के वे ही गुण विकारी एवं अपूर्ण हो रहे हैं। उक्त गुणों की विपरीत दशा के सद्भाव से. संसारी आत्मा दुःख दशा भुगत रहा है, अत: उन सबका अभाव ही चाहता है और उसके अभाव की पराकाष्ठा रूपी सुख सिद्ध भगवान को है, ऐसा सहज ही अनुमान प्रगट होता है और वह आगम से मेल खाता हुआ होने से ऐसी श्रद्धा ही सम्यक श्रद्धा है। ऐसा विश्वास जागृत होता है।
अनन्त चतुष्टय प्रगट करने में ज्ञानोपयोग की मुख्यता
उपरोक्त कथन का संक्षेपण करके विचार करें तो स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि इस आत्मा के उपयोग का बहिर्मुखकार उपयोग वर्तन ही आत्मा की इस विकृत एवं अविकसित दशा का मूल कारण है। क्योंकि भगवान सिद्ध ने अपनी आत्मा के उपयोग को पर से व्यावृत्त करके सर्वथा अन्तर्मुखाकार कर लिया, उस ही के फलस्वरूप, आत्मा पूर्ण शुद्धता एवं परिपूर्णता को प्राप्त हो गई। अत: हमको भी अपनी आत्मा की सिद्ध दशा प्राप्त करने के लिए, आत्मा के अनन्त गुणों में से मात्र एक ज्ञान गुण के कार्य, उपयोग की पर सन्मुखता का अभावकर उसको अन्तर्मुखाकार करना है। यह दशा प्राप्त करने के लिये यह पर सन्मुखता क्यों बनी हुई है उसके कारणों का अभाव करना है। उसका कारण पर में अपनेपन की बुद्धि एवं सुखबुद्धि की श्रद्धा यह श्रद्धा गुण की विपरीतता है। इसप्रकार हमारे आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने में बाधक इन तीन विषयों पर सूक्ष्मता एवं गम्भीरता के साथ पूर्ण रुचिपूर्वक, एकाग्रमन से विचारकर समझना चाहिये। इसलिये हम वर्तमान प्रकरण में सर्वप्रथम आत्मा के ज्ञानगुण के माध्यम से अपने उत्थान के मार्ग को समझेंगे। ___पं. दीपचन्दजी शाह ने ज्ञानदर्पण के कवित्त २२ में भी सिद्धभगवान के ज्ञान का स्वरूप बताते हुए कहा है :
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