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________________ १५६) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ है, जिसके द्वारा उनके स्वरूप का निर्णय हो सकता है। समयसार गाथा ५ की टीका से भी ऐसा ही स्पष्ट होता है। वह टीका निम्नानुसार है :___“आचार्य कहते हैं कि जो कुछ मेरे आत्मा का निज वैभव है, उस सबसे मैं इस एकत्व-विभक्त आत्मा को दिखाऊंगा, ऐसा मैंने व्यवसाय उद्यम, निर्णय किया है। मेरे आत्मा का वह निज वैभव इस लोक में प्रगट समस्त वस्तुओं का प्रकाशक है, और “स्यात्" पद की मुद्रावाला जो शब्दब्रह्म -अर्हन्त का परमागम है, उसकी उपासना से उसका जन्म हुआ है। “स्यात्" का अर्थ “कदाचित” है अर्थात् किसी प्रकार से - किसी अपेक्षा से कहना । परमागम को शब्दब्रह्म कहने का कारण यह है कि - अर्हन्त के परमागम में सामान्य धर्मों के - वचनगोचर समस्त धर्मों के नाम आते हैं और वचन से अगोचर जो विशेषधर्म है, उनका अनुमान कराया जाता है, इसप्रकार वह सर्व वस्तुओं का प्रकाशक है, इसलिये उसे सर्वव्यापी कहा जाता है, और इसीलिये उसे शब्दब्रह्म कहते हैं। समस्त विपक्ष-अन्य वादियों द्वारा गृहीत सर्वथा एकान्तरूप नयपक्ष के निराकरण में समर्थ अतिनिस्तुष निर्बाध युक्ति के अवलम्बन से उस निज वैभव का जन्म हुआ है और निर्मल विज्ञानघनआत्मा में अन्तर्निमग्न अन्तर्लीन परमगुरू- सर्वज्ञदेव और अपरगुरू- गणधरादिक से लेकर हमारे गुरूपर्यन्त, - उनके प्रसाद रूप से दिया गया जो शुद्धात्मतत्व का अनुग्रहपूर्वक उपदेश तथा पूर्वाचार्यों के अनुसार जो उपदेश है उससे निज वैभव का जन्म हुआ है। निरन्तर झरता हुआ-स्वाद में आता हुआ जो सुन्दर आनन्द है उसकी मुद्रा से युक्त प्रचुर संवेदन स्वरूप स्वसंवेदन से निज वैभव का जन्म हुआ है। यों जिस प्रकार से मेरे ज्ञान का वैभव है उस समस्त वैभव से दिखाता हूँ।" उपरोक्त कथन की सम्पुष्टि में उपरोक्त चारों गुणों की संसारी आत्मा की स्थिति को समझा जावे, क्योंकि सिद्ध भगवान की आत्मा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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