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(सुखी होने का उपाय भाग - ५ जानने की इच्छा बनी रहने के कारण आकुलित रहते हुए निरन्तर दुःखीदुःखी ही बना रहता है। इससे विपरीत सिद्ध भगवान का ज्ञानदर्शन पूर्ण विकास को प्राप्त हो जाने से, जितने भी जानने योग्य पदार्थ - विषय जगत में हो सकते हैं, वे सब ही ज्ञान में पहले से ही प्रत्यक्ष रहने से, उसको जानने की इच्छा ही उत्पन्न होने का अवकाश नहीं रहता। अत: इच्छा के अभाव में वे अत्यन्त अनाकुल बने रहने के कारण अत्यन्त सुखी ही सुखी हैं। अत: संसारी और मुक्त जीव की अनुभूति में सबसे बड़ा एवं मुख्य अंतर तो यही रहता है कि संसारी जीव आंकुलित रहने से महादुःखी रहता है एवं सिद्धजीव अनाकुलता के कारण सुखी ही सुखी रहते हैं। निष्कर्ष यह है कि इच्छा ही आकुलता की जननी है और आकुलता ही दुःख है। जहाँ इच्छा का अभाव है, वहाँ आकुलता का भी अभाव है और जहाँ आकुलता ही नहीं है वहाँ दुःख का सद्भाव भी असम्भव है। एकमात्र जानने की इच्छा से ही समस्त संसारी जीव दुःखी है लेकिन सिद्ध भगवान को जानने को बाकी रहा ही नहीं, अत: इच्छा उत्पन्न होने का अवकाश नहीं रहने से वे ही परमसुखी हैं व बने रहते
दर्शन और ज्ञान दोनों ही एक चेतना के ही भेद हैं। ज्ञेय पदार्थ सामान्य विशेषात्मक होता है तो उसको जानने वाली शक्ति भी सामान्य विशेषात्मक होनी ही चाहिए। अत: सामान्यांश अर्थात् अभेद का जानने वाली चेतना को दर्शन कहा है एवं विशेष अर्थात् भेद-प्रभेद सहित, ज्ञेय पदार्थ को जानने वाली सामर्थ्य को ज्ञान कहा गया है। सामन्यांश अभेद होने से निर्विकल्प होता है लेकिन विशेषपक्ष अनेकता द्योतक होने से सविकल्प होता है, अत: उसको जानने वाला ज्ञान भी सविकल्पक होता है। यहाँ विकल्प का अर्थ राग सहित वाला विकल्प नहीं समझना, मात्र अद्वैत को निर्विकल्प एवं द्वैत को जानने वाले ज्ञान को सविकल्प समझना,
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