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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
समान बना सकेंगे । नाटक समयसार के कवित्त नं. ११ में कहा भी है
कि
:
चेतनरूप अनूप अमूरति सिद्ध समान सदा पद मेरो । मोह महातम आतम अंग, कियौ परसंग महातम घेरौ ॥ ग्यानकला उपजी अब मोहि, कहौं गुन नाटक आगमकेरौ । जासु प्रसाद सधैं शिव मारग वेग मिटे भववास बसेरौ ।। ११ ।। भगवान सिद्ध की पर्याय के द्वारा
आत्मा के स्वभाव का परिचय
भगवान सिद्ध की आत्मा का स्वरूप तो द्रव्य से समझा जावे तो अथवा पर्याय से समझा जावे तो भी एकसा ही है लेकिन हमारी आत्मा का द्रव्य जैसा है वैसी पर्याय नहीं रहती । अतः मेरी पर्याय द्रव्य जैसी ही हो जावे, यह ही मेरी मनोकामना है, प्रयास है और इसके लिये ही मुझे अपनी पर्याय के साथ-साथ भगवान सिद्ध की पर्याय को समझना है, ताकि मैं अपनी पर्याय की शुद्धि कर सकूँ ।
वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि हर एक वस्तु का द्रव्य स्वरूप तो अव्यक्त रहता है, द्रव्य स्वयं अपने स्वरूप का परिचय नहीं देता, क्योंकि वह तो अकर्ता स्वभावी है । वह अपने परिचय देने का कार्य कैसे करे ? नहीं कर सकती ।
द्रव्य में बसी हुई समस्त सम्पदाओं का परिचय तो पर्याय से ही प्राप्त होता है। भगवान सिद्ध की आत्मा का पर्यायार्थिकनय से जो परिचय प्राप्त होगा वही द्रव्यार्थिक नय से भी प्राप्त होता है। अत: उनकी आग के स्वरूप का परिचय प्राप्त करने के लिए निःशंकतापूर्वक किसी भी प्रकार से पूर्ण पुरुषार्थ के साथ स्वरूप समझना चाहिए। तात्पर्य यह है
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