________________
ज्ञान- ज्ञेय एवं भेद - विज्ञान )
( १५१
तैसा ही अनुभव में आता है । अत: यह तो विश्वास होता है कि ये भाव तो आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकता। क्योंकि जब मैं एक सरीखा कायम बना रहता हूँ तो मेरे भाव भी कायम एक से ही बने रहने वाले होना चाहिए । अर्थात् द्रव्य जैसा हो, वैसी ही पर्याय भी होनी ही चाहिए उस ही से तो आत्मा के स्वरूप का पता लग सकेगा और उस ही से आत्मा की पहिचान भी की जा सकेगी ।
I
सिद्ध भगवान की आत्मा का जैसा द्रव्य है, वैसी ही पर्याय भी हो गई है। पर्याय में जो स्वरूप प्रगट हो गया है वह ही द्रव्य का स्वरूप था और द्रव्य का जैसा स्वरूप था वह पूरा का पूरा वैसा का वैसा ही पर्याय में भी प्रगट हो गया। इसलिए द्रव्य की ओर से अर्थात् द्रव्यार्थिकनय से देखे तो वही स्वरूप, द्रव्य जैसा ही दिखेगा और वह ही स्वरूप पर्याय की ओर से अर्थात् पर्यायार्थिकनय से देखने पर भी द्रव्य जैसा ही दिखेगा । इसप्रकार जिसमें किसी भी दृष्टि से कोई अन्तर नहीं पड़े वह ही यथार्थ स्वरूप हो सकता है और उस स्वरूप को लक्षण बनाने से ही, आत्मा के यथार्थ स्वरूप की पहिचान हो सकती है । लेकिन किसी भी संसारी जीव का आत्मा ऐसा नहीं मिल सकता, जिसके द्रव्य और पर्याय दोनों एक सरीखे हों ? अत: आत्मा का यथार्थ स्वरूप ढूँढ़ने के लिए भगवान सिद्ध का आत्मा ही ऐसा आत्मा है, जिसको ही आदर्श बनाकर हम अपने आत्मा के स्वरूप की खोज कर सकते हैं।
अतः अनादिकाल से अपरिचित ऐसे अपने आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहिचानने के लिए सिद्ध भगवान की आत्मा के स्वरूप को समझकर, उस स्वरूप को अपने आत्मा में खोज करेंगे तो हम अपने स्वरूप को पहिचान कर, उसके आश्रय से, अपने ही अन्दर उत्पन्न होने वाली विकृतियों का अभाव कर, आत्मा को पूर्ण शुद्ध भगवान सिद्ध के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org