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(सुखी होने का उपाय भाग - ५ कि उनकी आत्मा भी मेरे जैसी ही संसार में परिभ्रमण करती हुई आत्मा थी, उनने जिस मार्ग को अपना कर संसार परिभ्रमण का अंत करके अरहंत दशा प्राप्त की, तो मैं भी उस ही मार्ग को अपनाकर स्वयं अरहंत बन सकता हूँ आदि-आदि । इसप्रकार हम भी अपने पुरुषार्थ को जाग्रत करने के लिये, उनको हमारे आदर्श - मॉडल के रूप में स्वीकार करते हैं। यही कारण है कि उपरोक्त कार्य की सिद्धि के लिये जिनवाणी में भगवान अरहंत की ही प्रतिकृति के रूप में प्रतिबिम्ब की स्थापना करने का विधान भी है एवं नित्य प्रात:काल सर्वप्रथम उनके दर्शन पूजन आदि करने का विधान भी है और परम्परा भी है। हम यह मानते हैं कि यह जैन मात्र का कर्तव्य भी है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ के पृष्ठ ५ पर तो यहाँ तक लिखा है कि “त्रिलोक में जो अकृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं, मध्यलोक में विधिपूर्वक कृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं, जिनके दर्शनादि से एक धर्मोपदेश के बिना अन्य अपने हित की सिद्धि जैसे तीर्थंकर केवली के दर्शनादिक से होती है वैसे ही होती है, उन जिनबिम्बों को हमारा नमस्कार हो।"
इसीप्रकार जिनबिम्ब दर्शन की जिनागम में अनेक स्थानों पर महिमा की गई हैं क्योंकि उनके दर्शनमात्र से हमें वह सब मार्ग ज्ञान में प्रत्यक्षवत् हो जाता है , जिस मार्ग को अपनाकर वे स्वयं अरहंत हुए।
अपना स्वरूप समझने के लिए भगवान सिद्ध की आत्मा आदर्श कैसे ? हम जब-जब अपने आत्मा का स्वरूप अपने में ही ढूढ़ने की चेष्टा करते हैं तो हमको तो आत्मा रागी-द्वेषी, क्रोधी, मानी, मायावी ही लगता है। लेकिन विचार करने पर ये सारे भाव मुझे अहितकर तो लगते ही हैं तथा हर समय बदल भी जाते हैं, फिर भी मेरा अस्तित्व तो जैसा का
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