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________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान) (१४९ होने का अवकाश ही नहीं रहता। इसी कारण वे निरन्तर आनन्द में मग्न रहते हैं। पं. भागचंद जी ने अपने पद में कहा भी है कि:नित्य निगोद मांहि तैं कढ़ि कर, नर परजाय पाय सुखदानी। समकित लहि अंतर्मुहूर्त मैं, केवलपाय वरै शिवरानी। इसप्रकार भगवान अरहंत की आत्मा ने भी अपने आत्मा का स्वरूप-स्वभाव, भगवान सिद्ध के जैसा जाना और माना, उससे ऐसी दृढ़तम श्रद्धा उत्पन्न हो गई, कि “मैं तो सिद्ध ही हूँ। ऐसी श्रद्धा जाग्रत होने से, पर एवं पर्याय मात्र से अर्थात् ज्ञेयमात्र के प्रति अत्यन्त उपेक्षाबुद्धि उत्पन्न हो गई । फलस्वरूप उनके जानने के प्रति उत्साह ही निवृत्त हो गया और सहज ही हठ किये बिना ही आत्मा का सम्पूर्ण पुरुषार्थ आत्मसन्मुख कार्यशील हो गया एवं क्रमश: आत्मस्थिरता में वृद्धि करता हुआ पूर्णता को प्राप्त हो गया है अर्थात् उनका उपयोग अपने आत्मा में ऐसा गर्क अर्थात् डूब गया कि बाहर निकलता ही नहीं। इसी दशा का नाम अरहंत दशा है। कविवर पं. भागचंदजी ने एक पद्य में कहा भी है कि :अप्रमेय ज्ञेयनिके ज्ञायक नहिं परिणमति तदपि ज्ञेयनि में। देखत नयन अनेक रूप जिम, मिलत नहीं पुननिज विषयनि में। निज उपयोग आपने स्वामी, गाल दियो निश्चल आपुन में। है असमर्थ बाह्य निकसनिकों, लवण घुला जैसे जीवन में। वीतराग जिन महिमाथारी, वरण सकै को जन त्रिभुवन में ।। टेक। इसप्रकार भगवान अरहंत की आत्मा को आदर्श बनाकर उनके प्रतिबिम्ब के मात्र दर्शन करते हुए मुझे उनकी आत्मा की उक्त सम्पूर्ण दशा ज्ञान में दिखने लगती है और अंदर ऐसा पुरुषार्थ जाग्रत होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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