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________________ ज्ञान- ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान ) ( १५३ कि उनकी पर्याय का जो भी स्वरूप है वह उनके द्रव्य का स्वरूप है । ऐसा निःशंक होकर स्वीकार अर्थात् श्रद्धान करना चाहिए। किंचित् मात्र भी ऐसी शल्य नहीं रखनी चाहिए कि पर्याय के स्वरूप से द्रव्य के स्वरूप में किचित् मात्र भी अन्तर हो सकता है। ऐसी नि:शंक श्रद्धा जाग्रत हुए बिना उनके स्वरूप के द्वारा हम अपने आत्मा का स्वरूप कैसे पहिचान सकेंगे? नहीं पहिचान सकेंगे । इसलिए आत्मार्थी पूर्ण निःशंकतापूर्वक पहिचानने के लिये अपने ही अन्दर अनुसंधान प्रारम्भ करता है। 1 अब प्रथम आवश्यकता है कि सिद्ध भगवान के स्वरूप को समझने की । संसार के हर एक आत्मा में गुण तो अनन्त विद्यमान हैं। उन गुणों का पूर्ण विकास हो जाना तथा उनमें दिखने वाली सभी विकृतियों का अभाव हो जाना, वही है सिद्ध भगवान की आत्मा का परिचय और उन गुणों का पूर्ण विकास न होते हुए विकृतिरूप अविकसित रूप भी परिणमन, वही है संसारी आत्मा का परिचय । हमारी आत्मा के गुणों के विकास की पराकाष्ठापूर्वक विकृति के अभावरूप शुद्धता की मर्यादा का स्वरूप समझना अत्यन्त आवश्यक है । उसको समझने के लिए हमको भगवान सिद्ध की आत्मा के पूर्ण विकास एवं शुद्धता को समझना ही होगा । उससे ही अपने आत्मा का स्वरूप एवं अपनी आत्मा की पर्याय में भी पूर्णता प्रगट करने एवं विकृतियों का अभाव करने का मार्ग भी ज्ञात हो सकता है । इसलिये भगवान सिद्ध की आत्मा की वर्तमान में प्रगट हुई पर्याय का स्वरूप समझ लेने से हमको आत्मा का यथार्थ स्वरूप ज्ञात हो जायेगा और समझ में आ सकेगा तथा ऐसा विश्वास अर्थात् श्रद्धा जाग्रत होने का अवकाश खड़ा हो जावेगा कि वास्तव में मेरा आत्मस्वभाव भी सिद्ध समान ही है। भैया भगवतीदासजी के ब्रह्मविलास के कवित्त १६ में कहा भी है कि : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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