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________________ १४४ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ अटकने की व घुसने की चेष्टा करता है। जबकि दूसरा भाई उन मकानों को छोड़ता हुआ आगे बढ़ते जाने की चेष्टा करता है तो वह पहला भाई बहुत दुःखी होता है और उससे झगड़ा करता है कि सब मकानों को क्यों छोड़ता जा रहा है। लेकिन पहले भाई को उनके छोड़ते जाने में प्रसन्नता हो रही है, क्योंकि अपना घर समीप आता जा रहा है । जब दोनों साथ-साथ घर के समीप पहुँच जाते हैं तो घर के पहिचानने वाला भाई तो वाहन छोड़कर घर में पदार्पण करने की चेष्टा करता है लेकिन विदेशी भाई कहता है कि तुम अभी तक सब मकानों को छोड़ते चले आ रहे हो, इसलिये मैं तो इसको भी अपना मकान स्वीकारता नहीं हूँ। मैं तो मेरा घर ढूँढकर ही उसमें जाऊँगा । इसको भी अपना घर कैसे मान लूँ । इस दृष्टान्त के माध्यम से विचार करें कि अपने घर को नहीं पहिचानने वाला, किस प्रकार अपने निवास का आनन्द प्राप्त कर सकेगा । भटकते हुए ही अपना जीवन समाप्त कर देगा। लेकिन घर को पहिचानने वाला व्यक्ति तो निःशंकतापूर्वक अपने निवास का आनन्द प्राप्त करेगा ही । उसीप्रकार यथार्थ आत्मस्वरूप को पहिचानने वाले ज्ञानी को तो अन्य सबका निषेध करना नहीं पड़ता लेकिन उनमें अपने घर ऐसे आत्मा का चिन्ह नहीं मिलने से उन सभी पदार्थों का निषेघ होता जाता है और अपने निवास स्थान के समान अपना स्वरूप प्राप्त होते ही, किस-किसका निषेध किया था, उनको याद भी नहीं करना पड़ता, सहज रूप से कर्ताबुद्धि बिना ही सबका निषेध वर्तने लगता है। इससे विपरीत अज्ञानी अपने घर की पहिचान बिना सबकी नास्ति करते हुए, अपने निवास स्थान प्राप्त करने में असफल रहता हुआ, चारों गतियों में भटकता रहता है । तात्पर्य यह है कि अपने यथार्थ आत्मस्वरूप की पहिचान करे बिना जितना जो कुछ भी किया जावे वह आत्मलाभ के लिये किंचित् मात्र भी कार्यकारी नहीं हो सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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