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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान)
(१४३ कर सकेगा ? निष्कर्ष यह है कि शुद्ध स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हुए बिना भेद विज्ञान होना ही संभव नहीं है, नास्ति के कथनों के आश्रय से किसको भिन्न समझेगा ? मात्र असफलता ही प्राप्त होगी। फलत: उसका पुरुषार्थ आत्मलाभ के लिए किंचित् मात्र भी कार्यकारी नहीं हो सकेगा।
नास्ति के कथनों को मुख्य करके अपनी परिणति में, भी आत्मलाभ करने का प्रयास करने वाले आत्मार्थी, आत्मा को जिनसे भिन्न बताया गया है, उन सब परपदार्थों आदि के प्रति उपेक्षा बुद्धि प्रगट करने का अभ्यास भी करते हैं। सच्ची निष्ठा के साथ प्रयास करने वाले अभ्यासी पुरुषार्थी आत्मार्थी, उन पदार्थों के प्रति अनासक्तिभाव रखने में प्रयासरत भी रहते हैं, अतिमन्द कषायरूपभीवर्तते हैं। लेकिन इसप्रकार की कषायों की मंदता से, मिथ्यात्वसहित के शुभभावों के वर्तते हुए, उनको ऐसा भ्रम हो जाता है कि - “मैं आत्मलाभ करने के समीप पहुँच गया हूँ।” ऐसा मानकर वे आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहिचान करने की चेष्टा ही नहीं करते और नास्ति के कथनों में ही दृढ़ता बढ़ाते रहने के विकल्प करते रहने में ही संलग्न रहते हैं।
इसप्रकार का आत्मार्थी, कर्ताबुद्धि को और भी दृढ़ करता हुआ मिथ्यात्व को दृढ़ करता जाता है। यहाँ गंभीरता से विचार करने योग्य है कि जब तक आत्मा का उपयोग पर की सन्मुखता छोड़कर आत्मसन्मुखता नहीं करेगा, आत्मलाभ हो ही कैसे सकेगा ? उपरोक्त् प्रयासों में तो उपयोग, उक्त विकल्पों के करने के सन्मुख ही रहेगा इससे उसको आत्मलाभ कैसे सम्भव हो सकेगा ?
जैसे जयपुर निवासी एक पिता के २ पुत्र हैं। उनमें से एक प्रारम्भ से ही विदेश में रहने के कारण अपने घर को नहीं पहिचानता, दूसरा पहिचानता है। जब वे दोनों जयपुर आते हैं तो विदेशवासी पुत्र अपने घर को प्राप्त करने के लिए हर एक मकान को अपना मकान मानता हुआ
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