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________________ १४२) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ सारे ही बोल मात्र नास्ति के ही हैं। इसीप्रकार से समस्त जिनवाणी के कथन की शैली भी इसीप्रकार की है। इसलिए आत्मार्थी नास्ति के बोलों की, मुख्यता से पकड़कर अपने आत्मा को सबसे भिन्न मानने का प्रयास करने लगता है और मानता भी है एवं उसी आधार पर दूसरों को समझाता भी है कि जिनवाणी के कथनानुसार ऐसा मानना ही तो वास्तविक पुरुषार्थ है। ऐसी श्रद्धा बना लेने के कारण वह अपने ही स्वरूप अर्थात् वास्तविक स्वरूप को समझने में ही उदासीन बना रहकर उससे वंचित रह जाता है। जिनवाणी में अस्ति की मुख्यता से आत्मस्वरूपकोअवश्य समझाया है तथा उसको ही निश्चयनय का विषय कहकर उस ही को भूतार्थ - सत्यार्थ - उपादेय है और मुख्य करने योग्य है आदि-आदि प्रकार से गम्भीरतापूर्वक भार देकर बताया है। ऐसे उस अस्तिस्वरूप आत्मतत्त्व को समझे बिना नास्ति का पुरुषार्थ सफल हो ही नहीं सकता। क्योंकि जिस आत्मतत्व को उन सबसे भिन्न समझना है उसको ही समझे बिना भिन्न किससे समझेगा व किससे भिन्न करेगा ? जो १०० टंच के शुद्ध स्वर्ण को ही नहीं पहिचानता होगा वह तो पीतल को भी स्वर्ण मानकर उसको भी स्वर्ण की कीमत देकर खरीद लेगा। इसीप्रकार जो शुद्ध आत्मा के स्वरूप को ही नहीं समझेगा। वह तो अशुद्ध आत्मा को एवं उसमें किन्चित् कषाय की मंदतारूप शुभभावों वाली आत्मा को ही शुद्ध आत्मा के रूप में मान लेगा और संतुष्ट हो जावेगा। शुद्धआत्मा के स्वरूप को नहीं पहिचानने वाला, वास्तव में अशुद्ध भावों को भी नहीं पहिचानता, मात्र शब्दों में बोलने तक ही सीमित रहता है। शुद्ध को जाने बिना, अशुद्धता को पहिचान ही कैसे सकेगा ? जब तक दोनों का ज्ञान उपस्थित नहीं होगा, शुद्ध-अशुद्ध का भेद कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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