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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान)
(१४१
जीव चेतनागुण, शब्द- रस- रूप- गंध- व्यक्ति विहीन है। निर्दिष्ट नहिं संस्थान उसका, ग्रहण नहीं है लिंग से ॥ ४९ ॥ नहिं वर्ण जीव के, गंध नहिं स्पर्श रस जीव के नहीं। नहिं रूप अरु संहनन नहिं संस्थान नहि, तन भी नहीं॥ ५० ॥ नहिं राग जीव के, द्वेष नहिं, अरू मोह जीव के हैं नहीं। प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरु नोकर्म भी जीव के नहीं। ५१ ॥ नहीं वर्ग जीव के, वर्गणा नहिं, कर्म स्पर्द्धक है नहीं। अध्यात्मस्थान न जीव के, अनुभागस्थान भी हैं नहीं॥ ५२ ॥ जीव के नहीं कुछ योगस्थान रू, बंधस्थान भी हैं नहीं। नहिं उदयस्थान न जीव के, अरु स्थान मार्गणा के नहीं।। ५३ ।। स्थितिबंधस्थान न जीव के, संक्लेशस्थान भी हैं नहीं। जीव के विशुद्धि स्थान, संयमलब्धिस्थान भी हैं नहीं॥ ५४॥ नहिं जीवस्थान भी जीव के गुणस्थान भी जीव के नहीं। ये सब ही पुद्गल द्रव्य के, परिणाम हैं जान यही ।। ५५ ।।
उपरोक्त गाथाओं में गाथा नं. ४९ इतनी महत्वपूर्ण है कि वह कुंदकुंदाचार्य के पाँचों परमागमों के अतिरिक्त धवलग्रंथराज में भी
अविकल रूप से मिलती है। पंचपरमागमों में प्रवचनसार में गाथा १७२ पंच्चास्तिकाय में १२७ नियमसार में ४८ तथा अष्टपाहुड़ की गाथा है। गाथा नंबर ४९ का अर्थ निम्नप्रकार है :
“हे भव्य ! तू जीव को रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियगोचर नहीं ऐसा चेतना जिसका गुण है, ऐसा शब्द रहित किसी चिन्ह से ग्रहण न होने वाला और जिसका कोई आकार नहीं कहा जाता ऐसा जान।"
उपरोक्त गाथा के अर्थ से स्पष्ट होता है कि इस एक ही गाथा में अस्ति के रूप में तो मात्र एक चेतनागुणवाला कहा गया एवं नास्ति के ही सात बोल हैं। इससे आगे की ५० से ५५ तक की गाथाओं में तो
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