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________________ १४०) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ भेदविज्ञान की असफलता का कारण बहुत से आत्मार्थी बंधु जिनवाणी का अभ्यास करके, सच्ची निष्ठा लगन एवं रुचि के साथ आत्मलाभ करने का पुरुषार्थ तो करते हैं। लेकिन फिर भी सफलता को प्राप्त नहीं होते, इसका कारण क्या ? विचार करने पर ज्ञात होता है कि जिनवाणी में नास्ति की अपेक्षा कथन तो बहुत होते हैं, लेकिन अस्ति की अपेक्षा तो विस्तार से कहा जाना संभव ही नहीं है। जैसे शुद्ध आत्मा को समझाने के लिए जिनवाणी में नास्ति की मुख्यता से ऐसा कथन किया जावेगा कि “आत्मा छह द्रव्यों के अनंतानंत पदार्थों से भिन्न हैं, स्त्री, पुत्र, मित्र, पैसा, मकान, जायदाद आदि सभी पदार्थों से भिन्न है, आत्मा शरीरादि बाह्य पदार्थों से भिन्न है, उसीप्रकार आत्मा द्रव्य कर्म तथा सभी प्रकार के भाव कर्मों से भी भिन्न हैं। इसी प्रकार ज्ञान में ज्ञात होने वाले सभी ज्ञेयों रूप भी नहीं है ; उनकी द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से, सभी प्रकार से भिन्नता है एवं परपना है।” इत्यादि प्रकार के कथनों की ही जिनवाणी में बाहुल्यता मिलती है। अस्ति में तो मात्र इतना ही कहा जा सकेगा कि “आत्मा ज्ञानस्वरूपी अभेद है अर्थात् चैतन्य स्वरूपी है, अनन्त गुणों का भंडार होकर भी अभेद है।" कारण जो जिसमें होगा उस रूप ही तो उसको कहा जा सकेगा? आत्मा मात्र अकेला एक द्रव्य है अत: उसमें अस्ति तो मात्र अभेदरूप से एक की ही हो सकती है और नास्ति में तो अनेकताओं से भरा हुआ सारा विश्व है । अत: नास्ति में तो अनंतानंत विषयों का होना स्वाभाविक है, इसलिये जिनवाणी में नास्ति के कथनों की बाहुल्यता होना भी स्वाभाविक है। समयसार की गाथा नंबर ४९ के एवं उसके आगे की गाथा नं. ५० से ५५ तक के अध्ययन से यह तथ्य सहज ही सिद्ध होता है। उक्त गाथाओं का हिंदी पद्यानुवाद निम्नप्रकार है : For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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