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________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान) अपने यथार्थ स्वरूप की पहिचान अनादिकाल से इस जीव को अपना यथार्थ स्वरूप अभी तक ज्ञात नहीं है और जो आत्मा के रूप में ज्ञात हो रहा है अनुभव में आ रहा है, क्रोधी-मानी-मायावी-लोभी आदि अनेक विकृतियों का समुदाय ही आत्मा के रूप में जानने में आ रहा है। लेकिन ऐसा आत्मा तो वास्तविक आत्मा कैसे हो सकता है ? क्योंकि ये भाव तो क्षण-क्षण में बदल जाते हैं एवं घटते-बढ़ते भी अनुभव में आते हैं और अकुलता उत्पादक है। दूसरी ओर यह भी विचार आता है कि ये विकृत भाव मेरे में ही तो हो रहे हैं इसलिए इनको आत्मा कैसे नहीं मानी जावे? लेकिन यह भी लगता है कि इन क्षण-क्षण में बदल जाने वाले भावों का कोई अधिष्ठाता तो अवश्य होना ही चाहिए, जिसमें ये भाव हो रहे हैं क्योंकि इन भावों का क्षण-क्षण में जन्म और मरण, किसी स्थाई सत्ता के बिना कैसे हो सकेगा? नहीं हो सकेगा। इसलिए अनुमान से ऐसा निश्चित होता है कि इन क्षणिक भावों का आधारभूत द्रव्य उसी समय विद्यमान रहना ही चाहिए। इसलिए ज्ञात होता है कि इन भावों के पीछे ही मेरी वह आत्मा छुपी हुई है, जिसकी मुझे खोज करना है। ऐसे दृढतम निर्णय और विश्वास के साथ आत्मार्थी जीव जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा के साथ, उसमें बताये गये मार्ग के द्वारा, अपने आत्मा में उत्पन्न होने वाले भावों में ही अपने, यथार्थ स्वरूप को खोजने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। आत्मस्वरूप को खोजने की विधि उपरोक्त प्रयास करने में रत आत्मार्थी को, समस्या खड़ी होती है कि अनादिकाल से जो अपरिचित है, उस आत्मस्वरूप को कैसे खोजा जा सकेगा? यह कार्य तो असम्भव जैसा ही लगता है? आचार्य कहते हैं कि कठिन अवश्य है लेकिन अशक्य नहीं है। दृढ़तम विश्वास के साथ पुरुषार्थ करने से अत्यन्त सरल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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