SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान ) (१३५ जिनवाणी द्वारा बताये हुए स्व-पर-भेद विज्ञान के आधारभूत यथार्थ मार्ग को दृढ़तम श्रद्धा के साथ स्वीकार कर, आत्मानुसंधान करना ही धर्म लाभ करने के लिए, नींव के पहिले पत्थर के समान है। आत्मलाभ का मूल आधार 'भेद विज्ञान' अपने आत्मस्वभाव/आत्मस्वरूप को खोजने के लिये मेरा क्षेत्र तो सीमित हो गया। आत्मद्रव्य के अतिरिक्त अन्य कहीं भी मेरा आत्मा नहीं मिल सकेगा, ऐसी श्रद्धा तो हो गई लेकिन अपने आत्मद्रव्य में भी जब आत्मा को खोजने का प्रयत्न करता हूँ तो वहाँ भी अशुद्ध/विकारी भावों वाला ही आत्मा अनुभव में आता है, अन्य कोई प्रकार हो सकता है, ऐसा लगता ही नहीं है। अत: इसमें आत्मा कैसे मिलेगा ? यह एक विकट समस्या है। अनेक प्रकार की कोशिश करने पर भी, अन्य कोई प्रकार का आत्मा होने का आभास ही नहीं मिलता। इस समस्या का समाधान भी जिनवाणी में उपलब्ध है। आचार्य कहते हैं “तेरा आत्मस्वभाव अर्थात् आत्मतत्व भी, तेरे ही आत्मद्रव्य के सात तत्वों - नवतत्वों के बीच में ही छुप रहा है, अन्य कहीं नहीं है, उनमें ही अनुसंधान करने से तुझे प्राप्त होगा।" भगवान कुन्द कुन्दाचार्य ने पूरे समयसार ग्रंथ में, इस अनुसंधान करने की प्रक्रिया का ही विस्तार से वर्णन किया है। आत्मलाभ अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये इस ग्रंथ के कथनों को रुचिपूर्वक मंथन करना ही एक मात्र उपाय है। यही कारण है कि इस ग्रंथराज की अपार महिमा गाई जाती है एवं कल्याण के लिये सर्वोत्कृष्ट मार्गदृष्टा होने से आचार्यकुन्दकुन्द देव का ही मंगलाचरण में गणधरदेव के पश्चात् नाम स्मरण किया जाता है। यथा : मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमोगणी, गगलं कुन्दकुन्दायों जैन धर्मोस्तु मंगलम् ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy