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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
इस ग्रंथराज के प्रारम्भ में ही आचार्यश्री ने, अपनी ही पर्यायों के स्वागों अर्थात् विकारी भावों के बीच में छुपे हुए उस यथार्थ आत्मतत्त्व को दिखाने की इस प्रकार की गाथा नं. ५ में प्रतिज्ञा की है - __“उस एकत्वविभक्त् अर्थात् अपने शुद्ध स्वभाव में एकत्व और अशुद्ध भावों से विभक्त आत्मा को मैं आत्मा के निज वैभव से दिखाता हूँ, यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण- स्वीकार करना, और यदि कहीं चूंक जाऊँ तो छल नहीं ग्रहण करना ॥ ५॥"
उक्त ग्रंथराज में ही आचार्य श्री ने अपने ही पर्यायों में उत्पन्न हुए अशुद्ध भावों के बीच में छुपा हुआ जो अपना वास्तविक आत्मतत्व है, उसको खोज निकालने का उपाय मात्र भेद विज्ञान ही कहा है। भेद विज्ञान की महिमा बताने वाले कलश नं. १३०-१३१ इसप्रकार हैं :
"भावयेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावद्यावत्परा च्चुत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठिते ॥ १३०॥"
अर्थ :- यह भेद विज्ञान अविच्छिन्न - धारा से जिसमें विच्छेद न पड़े ऐसे अखण्ड प्रवाहरूप से तब तक भाना चाहिए जब तक ज्ञान पर भावों से छूटकर ज्ञान ज्ञान में ही ( अपने स्वरूप में ही) स्थिर हो जावे ॥ १३०॥
कलश १३१ इसप्रकार है :“भेदविज्ञानतः सिद्धाः - सिद्धा ये किल केचन। अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ १३१॥"
अर्थ :- जो कोई सिद्ध हए हैं, वे भेदविज्ञान सेसिद्ध हए हैं, और जो कोई बंधे हैं, वे उसी के (भेदविज्ञान के ही)अभाव से बंधे हैं ॥१३१ ॥
उपरोक्त प्रकार से अपने ही अशुद्धभावों के बीच छुपे हुए अपने वास्तविक आत्मतत्व को खोजने का उपाय एकमात्र भेदविज्ञान ही है।
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