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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
वीरज अनंत सदा सुख को समुद्र आप, परम अनंततामैं और गुण गाइए। ऐसो भगवान ज्ञानवान लखै घट ही मैं, ऐसा भाव भाय “दीप" अमर कहाइये" ॥ ९ ॥
ऐसे दृढ़तम निर्णय की घोषणा ने ही आत्मार्थी को ऐसी दृढ़तम श्रद्धा उत्पन्न कर दी कि मुझे मेरी आत्मा के यथार्थ स्वभाव को खोजने के लिये कहीं अन्य भटकना ही नहीं है. मात्र मेरे आत्मद्रव्य में ही अनुसंधान करनी है। नाटक समयसार बंध अधिकार के अंत में भी कहा है कि :“मेरो धनी नहिं दूर दिसांतर,
मोही में है मोहि सूझत नीकै।"॥ ४८ ॥ समयसार की गाथा २०, २१ व २२ में भी कहा है कि :
“जो पुरुष अपने से अन्य जो पर द्रव्य-सचित्त स्त्री पुत्रादिक, अचित्त धनयान्यादिक अथवा मिश्र ग्राम नगरादिक हैं -उन्हें यह समझता है कि मैं यह हूँ , ये द्रव्य मुझ स्वरूप हैं, मैं इसका हूँ, यह मेरा है, यह मेरा पहले था, इसका मैं भी पहले था, यह मेरा भविष्य में होगा, मैं भी इसका भविष्य में होऊँगा-ऐसा झूठा आत्मविकल्प करता है वह मूढ है, मोही है, अज्ञानी है, और जो पुरुष परमार्थ वस्तुस्वरूप को जानता हुआ, ऐसा झूठा विकल्प नहीं करता वह मूढ नहीं, ज्ञानी है"
इसप्रकार जिनवाणी के मूल स्त्रोतृ अरहंत भगवान, ऐसे देव एवं उनकी वाणी ऐसी द्रव्यश्रुत, एवं उस वाणी में अवगाह' कर सच्चे अनुसंधानकर्ता एवं हमको मोक्षमार्ग के प्रदाता सच्चे गुरू उन पर दृढ़तम अटूट श्रद्धा रखकर, उनके कथन पर विश्वास कर अपने आत्मस्वभाव की खोज करता है, वह अवश्य आत्मलाभ प्राप्त करेगा। इसप्रकार
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