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________________ १३०) (सुखी होने का उणय भाग - ५ वाला रागांश भी रुक जाता है। उपरोक्त दशा तब ही सम्भव हो सकती है कि जब ज्ञान का उपयोगात्मक विषय, मात्र एक ही हो, द्वैत का अभाव हो, तथा उसका विषय ध्रुव स्थाई हो, परिवर्तनशील नहीं हो, क्योंकि अध्रुव-परिवर्तनशीलता में परिणति का एकाग्र होना असम्भव है। .. ज्ञान में ज्ञेयों का होना तो स्वाभाविक क्रिया है और ज्ञेय तो अनेक होने से ज्ञान के विषयों में अनेकताओं का अभाव भी किया जाना संभव नहीं है। ऐसी दशा में एक मात्र अनेकान्त का प्रयोग ही एकाग्रता के लिये सर्वोत्कृष्ट औषधि है - परम साधन है। दृष्टि अर्थात् श्रद्धा तो इन सब अनेकताओं और विविधताओं के बीच में से भी, अपने सिद्ध समान ध्रुव-अकृत और अनन्त गुणों के स्वामी ऐसे स्थाई भाव को, उन ज्ञेयों की अनेकताओं में भी खोजने के यल में ज्ञान के द्वारा संलग्न रहती है। अत: अनेकान्त के अवयव ऐसे "ही" और "भी” के प्रयोगपूर्वक उन सब अनेकताओं में से भी मुख्य-गौण के प्रयोग अर्थात् को अर्थात् उपादेय बुद्धि एवं गौण को उपेक्षा अर्थात् हेय बुद्धि पूर्वक अपने स्वामी ऐसे कारण परमात्मा को ज्ञान के सहयोग से ढूंढ लेती है और श्रद्धा उसी में "अंहपना स्थापन कर लेती है। यह दशा ही आत्मानुभूति की दशा है और इस ही दशा के प्राप्त करने को, सम्यक् अनेकान्तपूर्वक, सम्यकएकान्त का जन्म होना कहा गया है। इस दशा में ही, पूर्व भूमिका में होने वाले अनेकान्त के अवयव अस्तिकास्ति एवं मुख्य गौण संबंधी विकल्प एवं नय सम्बन्धी विकल्पों का अभाव होकर, सब पक्षों का अतिक्रान्त कर अत्यन्त-निर्विकल्प-अतीन्द्रिय आनन्द का उपभोक्ता बन जाता है एवं अपना जीवन सार्थक कर लेता है। इसप्रकार आत्मोपलब्धि में भी एक मात्र अनेकान्त का सम्यक् प्रयोग ही कार्यकारी है । इसप्रकार अनेकान्त ही जैनधर्म का सारभूत तत्व है। इसकी जितनी भी महिमा की जावे कम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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