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________________ ज्ञान- ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान ) स्याद्वाद की उपयोगिता स्याद्वाद तो कथन शैली का नाम है। क्योंकि जो चीज मात्र अनुभव में आई है अर्थात् जिस अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद आत्मा मात्र ने चखा है- पान किया है, उस आनन्द का स्वाद तो वाणी में आ नहीं सकता । भेद- प्रमेद करके कथन कथन करना अथवा समझाना हो तो अंशत: ही किया जा सकता है । इस कथन के ही भेद प्रमेद रूप सप्तभंग पड़ जाते है। इस ही को सप्तभंगी वाणी भी कहा जाता है। ऐसी दशा में उसकी वाणी तथा ज्ञान में स्यात् अर्थात् अन्य अपेक्षा भी गौण है, ऐसा सहज स्वाभाविक बने रहना अनिवार्य है। इसही लिये ज्ञानी पुरुष का हर एक कथन स्याद्वादमय ही होता है और यही कारण है कि जैन दर्शन का हरएक कथन स्याद्वादमय ही कहा गया है। इन्हीं सब कारणों से स्याद्वाद को जैन धर्म का ध्वज भी कहा जाता है । ( १३१ ज्ञान- ज्ञेय एवं भेद - विज्ञान समझने की पद्धति का उद्देश्य, ध्येय और तात्पर्य आदि समझने का उद्देश्य क्या ? जिसप्रकार स्वर्ण की खान धरती में और खान की मिट्टी में स्वर्ण छिपा हुआ है, कहीं भी दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार आत्मा, छह द्रव्यों में और जीवद्रव्य में विद्यमान रागादिविकारी भावों के बीच छुपा हुआ है, वह आत्मस्वभाव भी दिखाई नहीं देता । जिसप्रकार स्वर्ण का शोधक विशेषज्ञ, उसकी अन्वेषण रिपोर्ट पर विश्वास कर, उस धरती में स्वर्ण की खान एवं खान की मिट्टी में स्वर्ण नहीं दिखने पर भी विद्यमान है. ऐसा मात्र उस रिपोर्ट के आधार पर विश्वास कर, उस खान व मिट्टी को, स्वर्ण की खान एवं स्वर्ण की मिट्टी मान लेता है, उसमें निश्चित रूप से स्वर्ण प्राप्त होगा, ऐसा विश्वास निःशंकतापूर्वक कर लेता है । उसीप्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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