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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता ) (१२९ श्रद्धा कराने के लिए भी' का प्रयोग करके समग्र वस्तु को समझ लिया जा सकता है। __इसप्रकार अनेकान्त के सम्यक् प्रयोग द्वारा ही आत्मवस्तु समझी जा सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है। इस संबंध में प्रवचनसार की गाथा ११४ की टीका का निम्न अंश पठनीय है। “वास्तव में सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को देखने वाली दो आँखें हैं - (१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक । इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीवसामान्य को देखने वाले और विशेषों को न देखने वाले जीवों को “वह सब जीव द्रव्य है” ऐसा भासित होता है और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बंद करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीव-द्रव्य में रहने वाले नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपनापर्यायस्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को वह जीवद्रव्य अन्य अन्य भासित होता है, क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है, कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति। इसप्रकार समग्र वस्तु का सामान्य ज्ञान होने पर भी, समग्र वस्तु को स्वभाव के द्वारा समझने में एक मात्र अनेकान्त का प्रयोग ही कार्यकारी होता है। आत्मोपलब्धि में उपयोगिता किस प्रकार ? आत्मोपलब्धि के समय निर्विकल्पपना अवश्यंभावी है उस समय ज्ञान में ज्ञप्ति परिवर्तन रुक जाता है, फलत: ज्ञप्ति परिवर्तन के कारण होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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