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________________ १२८) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ आचार्यश्री का अन्तिम वाक्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि “वास्तव में अनेकान्त-स्याद्वाद के बिना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ही प्रसिद्ध नहीं हो सकती।" इसका स्पष्ट अर्थ है कि समझने में अनेकान्त-स्याद्वाद की शरण लिये बिना वस्तु समझ में नहीं आ सकती, और प्रायोग पद्धति में जब दृष्टि, मात्र एक अभेद-नित्य वस्तु को विषय नहीं बनावेगी, तो किसमें एकाग्र होगी और तन्मय होगी। अत: दोनों पद्धतियों में भी अनेकान्त व स्याद्वाद के प्रयोग की अत्यन्त अनिवार्यता है। समझने में अनेकान्त की उपयोगिता किस प्रकार ? विरुद्ध स्वभाव वाली वस्तु को समझने के लिये, समझने का प्रयास करने वाला व्यक्ति जब तक दोनों स्वभावों में से क्रमश: अपनी दृष्टि में एक स्वभाव को मुख्य बनाकर दूसरे स्वभाव को “ही” के प्रयोग द्वारा गौण नहीं करेगा, तब तक समग्र वस्तु को कैसे समझ सकेगा? क्रमश: विरुद्ध स्वभावों को समझने के समय तो अनेकान्त का प्रयोग ही कार्यकारी सिद्ध होगा। क्योंकि जिस स्वभाव को उसकी दृष्टि मुख्य कर रही है और दूसरे स्वभाव को गौण किया है, उसकी उस स्वभाव में तो, सर्वथा ही “नास्ति' है, इसीप्रकार गौण किये हुए स्वभाव को मुख्य करके समझा जावेगा तब पूर्वानुसार ही उस भाव में अन्य भाव की नास्ति है? ऐसी निःशंक श्रद्धा करे बिना समग्र वस्तु का स्वरूप किसी भी प्रकार से स्पष्ट समझ में नहीं आ सकता। ___उस ही अभेद वस्तु में एक साथ ही विद्यमान अनन्त धर्मों सहित वस्तु को जब समझना हो तो इसीप्रकार अनेकान्त के “भी” का प्रयोग कार्यकारी होगा, क्योंकि सभी धर्म अर्थात् गुण आत्मा में सदैव एक साथ ही विद्यमान रहते हैं, क्योंकि अनन्त गुणों की समुदाय ही, वह वस्तु है। अत: वे सब आत्मा में एकसाथ ही रहते हैं, ऐसी दृष्टि की नि:शंक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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