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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (१२७ में ही पृष्ठ ६४८-६४९ के द्वारा वस्तु व्यवस्था समझाने का उपाय अनेकांत कहा है। वह इसप्रकार है : “उसके (ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के) अंतरंग में चकचकित प्रकाशते ज्ञानस्वरूप के द्वारा तत्पना है, और बाहर प्रगट होते अनन्त, ज्ञेयत्व को प्राप्त, स्वरूप से भिन्न ऐसे पररूप के द्वारा ज्ञानस्वरूप से भिन्न ऐसे परद्रव्य के रूप द्वारा अतत्पना है अर्थात् ज्ञान उस-रूप नहीं हैं, सहभूत साथ ही प्रवर्तमान अनन्त और क्रमश: प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य-अंशों के समुदायरूप अविभाग द्रव्य के द्वारा एकत्व है, और अविभाग एक द्रव्य में व्याप्त, सहभूत प्रवर्तमान तथा क्रमशः प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य-अंशरूप चैतन्य के अनन्त अंशों रूप पर्यायों के द्वारा अनेकत्व है, अपने- द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप से होने की शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा अर्थात ऐसे स्वभाववाली होने से सत्तत्त्व है, और पर के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप न होने की शक्ति रूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा असत्तत्त्व है, अनादिनिधन अविभाग एक वृत्ति रूप से परिणतपने के द्वारा नित्यत्व है, और क्रमश: प्रवर्तमान, एक समय की पर्यायवाले अनेक वृत्ति अंशों-रूप से परिणतपने के द्वारा अनित्यतत्त्व है। इसप्रकार ज्ञानमात्र आत्मवस्तु को भी, तत्-अतत्पना इत्यादि दो-दो विरुद्ध शक्तियाँ स्वयमेव प्रकाशित होती हैं, इसलिए अनेकांत स्वयमेव प्रकाशित होता है।" प्रश्न :- यदि आत्मवस्तु को, ज्ञानमात्रता होने पर भी, स्वयमेव अनेकान्त प्रकाशता है, तब फिर अर्हन्त भगवान उसे साधन के रूप में अनेकान्त का स्याद्वाद का उपदेश क्यों देते हैं? उत्तर :- अज्ञानियों के ज्ञानमात्र आत्मवस्तु की प्रसिद्धि करने के लिए उपदेश देते हैं ऐसा हम कहते हैं। वास्तव में अनेकान्त स्याद्वाद के बिना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु की प्रसिद्धि नहीं हो सकती।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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