________________
१२४ )
( सुखी होने का उपाय भाग - ५
अनेकान्त स्वभाव वाली होने से सब वस्तुएं अनेकान्तात्मक हैं । . जो वस्तु तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है - इसप्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उत्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है ।
“कुछ विचारक कहते हैं कि स्याद्वाद शैली में " भी” का प्रयोग है, “ही” का नहीं। उन्हें “भी” में समन्वय की सुगंध और "ही" में हठ की दुर्गन्ध आती है, पर यह उनका बौद्धिक भ्रम ही है। स्याद्वाद शैली में जितनी आवश्यकता " भी" के प्रयोग की है, उससे कम आवश्यकता "ही" के प्रयोग की नहीं। " भी" और "ही" का समान महत्व है । (पृष्ठ-३५९)
“ भी ” यह बताती है कि हम जो कह रहे हैं, वस्तु मात्र उतनी ही नहीं है, अन्य भी है, किन्तु "ही" यह बताती है कि अन्य कोणों से देखने पर वस्तु और बहुत कुछ है, किन्तु जिस कोण से यह बताई गई है, वह ठीक वैसी ही है, इसमें कोई शंका की गुंजाइश नहीं है । अत: "ही" और " भी" एक दूसरे की पूरक हैं, विरोधी नहीं। "ही" अपने विषय के बारे में सब शंकाओं का अभाव कर दृढ़ता प्रदान करती है और " भी” अन्य पक्षों के बारे में मौन रहकर भी उनकी संभावना की नहीं, निश्चित सत्ता की सूचक है।” (पृष्ठ - ३६० )
“इसीप्रकार " ही ” का प्रयोग " आग्रही ” का प्रयोग न होकर इस बात को स्पष्ट करने के लिए है कि अंश के बारे में जो कहा गया है, वह पूर्णतः सत्य है । उस दृष्टि से वस्तु वैसी है, अन्य रूप नहीं ।
समन्तभद्रादि आचार्यों ने पद-पद पर "ही" का प्रयोग किया है । "ही" के प्रयोग का समर्थन श्लोकवार्तिक में इसप्रकार किया है :
Jain Education International
'वाक्येडवधारणं तावदीनिष्टार्थ निवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुतत समत्वात्तस्य कुत्रीचित् ।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org