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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता )
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वाक्यों में "ही" का प्रयोग अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति और दृढ़ता के लिए करना ही चाहिए, अन्यथा कहीं-कहीं यह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है।"
प्रमाण वाक्य में मात्र सत् पद का प्रयोग होता है, किन्तु नयवाक्य में स्यात् पद के साथ - साथ एवं "ही" का प्रयोग भी आवश्यक है। "ही" सम्यक् एकान्त की सूचक है और “भी” सम्यक् अनेकान्त की।" ( पृष्ठ-३६१)
“अत: वाणी में स्यात् पद का प्रयोग आवश्यक है, स्यात् पद अविवक्षित धर्मों को गौण करता है, पर अभाव नहीं, इसके बिना अभावका भ्रम उत्पन्न हो सकता है।" ( पृष्ठ ३५९) ।
उपरोक्त प्रकार से सभी दृष्टिकोणों से अनेकान्त एवं स्याद्वाद की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है। जैनदर्शन तो वस्तु दर्शन है-यह कोई कल्पना नहीं है। वस्तु स्वयं जैसी है, वैसी ही उसको नहीं मानकर अन्यथारूप से मान लेने पर भी, वस्तु स्वरूप तो नहीं बदल जायेगा ? उस वस्तु के स्वरूप का विवेचन करने में स्याद्वाद की शरण लेना तो अनिवार्य हो जाता है। अत: जैनदर्शन का हर एक कथन स्याद्वादमय ही होता है। प्रत्येक स्थान पर यह बताना संभव नहीं हो सकता, इस संबंध में कषाय पाहुड़ का निम्न कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है :___“स्यात् शब्द के प्रयोग का अभिप्राय रखने वाला वक्ता यदि स्यात् शब्द का प्रयोग न भी करे तो भी उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है। अतएव स्यात् श्ब्द का प्रयोग नहीं करने पर भी कोई दोष नहीं है। कहा भी है- यात् शब्द के प्रयोग की प्रतिज्ञान का अभिप्राय रखने से स्यात् शब्द का अप्रयोग देखा जाता है।"
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