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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (१०३ उपर्युक्त परिणमन में एक विशेषता और भी है कि आत्मा तो अनन्त गुणों का समुदाय रूप अखण्ड पिंड एक है और परिणमन उस अखण्ड पिंड का होता है। इसलिये उस एक समय की एक पर्याय में, अनन्त गुणों के अनेक स्वभावों वाला मिश्र अभेद रूप एक परिणमन ही होता है अर्थात् उस एक समयवर्ती, एक पर्याय में अनन्त गुणों का मिला-जुला एक ही स्वाद-वेदन अनुभव में आता है और आना भी चाहिए। ज्ञान भी उस मिश्र अभेद परिणमन को ही जानता है। इस संबंध में आत्मा की किसी एक समय की पर्याय का विश्लेषण करें तो विषय विशेष स्पष्ट हो सकेगा। जैसे क्षायकसम्यग्दृष्टि ज्ञानी की आत्मा के परिणमन को, भिन्न-भिन्न गुणभेद की दृष्टि से अर्थात् भेद करके समझें तो, उसके अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व आदि अनन्त सामान्य गुण ऐसे हैं, जिनका परिणमन तो एक शुद्ध रूप ही सदैव होता रहता है, उनमें कोई अशुद्धता विकृति कभी होती ही नहीं है। लेकिन आत्मा के अन्य अनेक विशेष गुण-श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, वीर्य सुख आदि ऐसे हैं, जिनके परिणमन शुद्ध भी होते हैं तथा अशुद्ध भी। जैसे श्रद्धागुण सम्यक्प भी और मिथ्यारूप भी होता है। इसीप्रकार चारित्र भी दोनों रूपों से परिणमता है। हीनाधिक रूप में परिणमता हुआ ज्ञान भी हमारे अनुभव में आता है। आत्मोपलब्धि में जो वीर्य काम करे, वह सम्यक् परिणमन है और ज्ञेयों में एकत्व करने में जो वीर्य बल प्रदान करे वह मिथ्या परिणमन है। दूसरे प्रकार सुख और दुःख दोनों का परिणमन तो एक-दूसरे के विपरीत है ही, यह तो हमको अनुभव भी हो रहा है। इसीप्रकार अन्य अनन्त गुणों का भी दोनों प्रकार का परिणमन होता हुआ अनुभव में आता है। उपरोक्त सभी गुण स्वतंत्र होने के कारण, एक दूसरे से अप्रभावित रहते हुए ही, अपने-अपने स्वतंत्र परिणमन करते रहते हैं, तथा सबका सम्मिलित परिणमन होने से स्वाद भी सम्मिलित रूप से एक Jain Education International For Private & Personal Use Only : www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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