SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ ही होता है। क्योंकि सबका द्रव्य तो एक ही है और परिणमन तो द्रव्य का ही होता है । अतः सभी स्वाभाविक और वैभाविक परिणमनों का मिला हुआ स्वाद तो एक ही आ सकेगा। उस मिश्र स्वाद में अलग-अलग गुणों में से एक-एक के स्वाद को भिन्न कर लेना अशक्य जैसा ही है । लेकिन यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मिश्र स्वाद जो मुझे अनुभव में आ रहा है, वह आत्मा का वास्तविक स्वाद नहीं है, बल्कि विकृतियों सहित वाली पर्याय का स्वाद है। जैसे किसी वैद्य ने १००० औषधियाँ मिलाकर एक रयासन की छोटी-सी गोली बनाई, वह छोटी-सी गोली शरीर में जाने पर सभी रसायनों का सम्मिलित कार्य होने लग जाता है, इससे निश्चित होता है कि १००० रसायनों के मिश्रण होने पर भी वे उस छोटी-सी गोली में अपना भिन्न-भिन्न अस्तित्व तो बनाये ही रहते हैं। इसीप्रकार उस एक समय की उत्पन्न हुई मिश्र पर्याय में सभी गुणों के शुद्ध - अशुद्ध सभी परिणमनों का मिश्र स्वाद ही रहता है । इसीप्रकार और भी विश्लेषण करें तो उसकी एक समय की प्रगट पर्याय में अनंतानुबंधी के अभावात्मक आंशिक शुद्धता अर्थात् वीतरागता है, साथ ही तीन कषायों के सद्भावात्मक अशुद्धि अर्थात् राग भी विद्यमान है। उस राग के भी अनेक भेद क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद में से भी कई कषायों के स्वाद, उस एक समय की चारित्र गुण की पर्याय में वर्तते हैं । उसमें भी हर समय एक कषाय के उदय एक सरीखे नहीं रहने से स्वाद में भी तीव्र मंदरूप अनेक तारतम्यताएं पड़ जाती हैं। इसीप्रकार अन्य अनेक गुणों के भी तारतम्यतापूर्वक होने वाले परिणमनों का भी स्वाद उस एक समयवर्ती पर्याय में वर्तता है । उन सब का सम्मिलित स्वाद हर समय वेदन में आता है। उन सब में से अपने आत्मद्रव्य के स्वाभाविक भाव को पहिचानकर, भिन्न स्वाद लेना महान कठिन कार्य लगता है और है भी । लेकिन सबका 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy