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________________ १०२) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ पर्याय का स्वभाव तो इससे एकदम विपरीत है । निरतंरपरिणमनशील उत्पाद-व्यय स्वभावी ही है। शुद्धाशुद्ध एवं हीनाधिक रूप परिवर्तनशील स्वभावी है। कभी भी एकरूप रहती ही नहीं है। द्रव्य तो अपरिणामी बना रहता है लेकिन उसी समय पर्याय तो परिणमन करती ही रहती है। इसीप्रकार द्रव्य तो निरंतर परमशुद्ध ही रहता है लेकिन उसी समय पर्याय तो अपनी योग्यतानुसार अशुद्ध अथवा शुद्ध ही वर्तती रहती है। पर्याय के परिणमनकाल में भी द्रव्य तो अपरिणामी-कूटस्थ ही बना रहता है लेकिन पर्याय तो उसकी किंचित् भी अपेक्षा किये, बिना परिणमती ही रहती है, और अपनी योग्यतानुसार पर की अपेक्षा कर, निमित्त बनाकर, स्व की उपेक्षा कर विपरीत परिणमन करती रहती है। इसप्रकार पर्याय तो द्रव्य से विपरीत स्वभावी ही है। उपर्युक्त स्थिति होते हुए भी दोनों स्थितियाँ एक साथ ही एक ही द्रव्य में एक ही समय में विद्यमान रहती हैं व अबाधगति से वर्तती रहती हैं। दोनों का क्षेत्र एक ही होते हुए, आत्मा के असंख्य प्रदेश ही हैं, काल एक ही समय है, स्वामी दोनों का एक आत्मद्रव्य ही है। लेकिन दोनों के भावों में अर्थात् स्वभाव में भिन्नता अवश्य है। फिर भी दोनों के कार्यों को कोई बाधा नहीं पहुँचाता। पंचास्तिकाय संग्रह की गाथा ११-१२-१३ में भी निम्नप्रकार कहा १ द्रव्य का उत्पाद या विनाश नहीं है, सद्भाव है। उसी की पर्यायें विनाश, उत्पाद और ध्रुवता करती हैं ॥ ११ ॥ २ पर्यायों रहित द्रव्य और द्रव्यरहित पर्यायें नहीं होती, दोनों का अनन्यभाव श्रमण प्ररूपित करते हैं ॥ १२ ॥ ३ द्रव्य बिना गुण नहीं होते, गुणों के बिना द्रव्य नहीं होता, इसलिये द्रव्य और गुणों का अव्यतिरिक्तिभाव अभिन्नपना है ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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