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________________ ९० ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ इसी विषय को आचार्यश्री ने इस ही ग्रन्थ की गाथा ६८ में दृढ़ता से सिद्ध किया है कि सिद्ध भगवान की आत्मा को स्वपरप्रकाशकता लक्षण ज्ञान की परिपूर्णता एवं अनाकुलता लक्षण सुख की पराकाष्ठा द्वारा आत्मतृप्ति निरन्तर विद्यमान रहती है। अर्थ - " जैसे आकाश में सूर्य अपने आप ही तेज, ऊष्ण और देव है, उसीप्रकार लोक में सिद्ध भगवान भी ज्ञान, सुख और देव हैं।” इस गाथा की टीका में भी इसही अभिप्राय को निम्नप्रकार विस्तंरित किया है टीका के मध्य में # इसीप्रकार लोक में अन्य कारण की अपेक्षा रखे बिना ही भगवान आत्मा स्वयमेव ही (१) स्वपर को प्रकाशित करने में समर्थ निर्वितथ (सच्ची) अनन्त शक्तियुक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्य होने से ज्ञान है, (२) आत्मतृप्ति से उत्पन्न होनेवाली जो परिनिवृत्ति है उससे प्रवर्तमान अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य है और (३) जिन्हें आत्मतत्त्व की उपलब्धि निकट है ऐसा दिव्य आत्मस्वरूपवान होने से देव है । इसलिए इस आत्मा को सुखसाधनाभास (जो सुख के साधन नहीं हैं परन्तु सुख के साधन होने का आभासमात्र जिनमें होता है) ऐसे विषयों से बस हो ।” - - संक्षेप से विचार किया जाए तो भगवान अरहंत की आत्मा में ज्ञान की पूर्णता होकर स्व एवं पर समस्त, एकसाथ ज्ञान में ज्ञेय के रूप में उपस्थित हैं । अतः किसी के भी जानने की आकांक्षा का आत्यंतिक अभाव हो जाने से अन्य कुछ भी जानने सम्बन्धी आकुलता उत्पन्न होने का अवकाश ही नहीं रहता; इसलिए पूर्ण सुखी हैं । अज्ञानी का ज्ञान परज्ञेयों में अपनेपन के साथ सुख मानने के कारण, अकेले परसन्मुख बना हुआ है । ज्ञेय अनन्त हैं; अत: सुख की खोज में अति तीव्रता से ज्ञेय परिवर्तन करता रहता है और अत्यन्त आकुलित बना रहता है। ज्ञानी का अभिप्राय सम्यक् अर्थात् अपने में अपनापन हो जाने पर भी राग के सद्भाव के कारण, उसका उपयोग भी जितना परलक्ष्यी www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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