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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( ९१ होता है; उतना तो आकुलित होता ही है। ज्ञानी को जितनी तीव्रता अथवा मंदतापूर्वक ज्ञेयपरिवर्तन होता है, उतनी ही आकुलता है । अत: सिद्ध है कि ज्ञेयपरिवर्तन ही आकुलता का उत्पादक है। भगवान अरहंत की आत्मा को सभीप्रकार के राग का आत्यंतिक अभाव हो गया है । अत: आकुलता उत्पन्न होने का अवकाश ही नहीं रहा । इसप्रकार भगवान अरहंत का ज्ञान एकमात्र अपने स्वज्ञेय में ही जम गया, रमगया, कीलित हो गया । अतः पूर्ण आनन्द का अनुभव करता हुआ अत्यन्त तृप्त - तृप्त बना रहता है I उपरोक्त समस्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि मैं आत्मा भी भगवान अरहंत की जाति का हूँ। मेरा स्वभाव सामर्थ्य भी वैसा ही है। अरहंत भगवान का आत्मा भी भूतकाल में निगोद से ही निकला था। उस समय उस आत्मा में उपरोक्त शक्तियाँ विद्यमान नहीं होती तो वर्तमान में जो प्रगट हुईं हैं, वे कहाँ से आ जातीं? उसीप्रकार मेरी आत्मा भी पूर्ण शक्तिमान है। इसलिए भगवान अरहंत की आत्मा से मेरा आत्मा किंचित् भी न्यून नहीं है। अतः मुझे मेरी महत्ता विश्वास में आनी ही चाहिए। मेरी अधिकता भासित हुए बिना, ज्ञेयों के प्रति आकर्षण कैसे छूट सकता है। ज्ञानस्वभाव ज्ञानस्वभाव क्या है ? ज्ञान आत्मा का एक असाधारण गुणमात्र ही नहीं, असाधारण लक्षण भी है। जीवद्रव्य में ज्ञान नहीं होता तो जीव का अस्तित्व तो सिद्ध होता ही नहीं, वरन् सारे विश्व का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं होता । कारण जगत के पाँचों द्रव्य तो अचेतन हैं, वे न तो अपने आपको जानते हैं और न पर को ही जानते हैं। अगर कोई जानने वाला पदार्थ जगत में नहीं होता तो उन द्रव्यों का भी अस्तित्व कौन बता सकता था ? इसीप्रकार जीवद्रव्य भी जो कि स्वयं अनन्त गुणों (शक्तियों) का अखण्ड पिण्ड है, उसका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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