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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञाततत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( ८९ को प्राप्त सोने के स्वरूप की भांति, परिस्पष्ट ( सर्वप्रकार से स्पष्ट) है, इसलिए उसका ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान होता है । " 1 इस गाथा के सम्बन्ध में हम विस्तार से चर्चा इसी पुस्तक के भाग ३ में कर चुके हैं । यहाँ तो मात्र इतना ही समझना है कि भगवान अरहंत की आत्मा में जो कुछ भी वर्तमान में प्रगट होकर प्रकाशमान हो रहा है, वह ही मेरी आत्मा का भी स्वभाव है । अन्तर तो मात्र प्रगटता ( पर्याय में) ही है । अंत: अरहंत की आत्मा का स्वरूप जान लेने से उस अन्तर को दूर करने के पुरुषार्थ जाग्रत होने के साथ उपरोक्त तीनों ही प्रयोजन सिद्ध होते हैं । अतः मुझे उनके ज्ञान और सुख की स्थिति समझनी चाहिए । | प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन की गाथा १९ में आचार्यश्री ने भगवान अरहंत की आत्मा के स्वरूप का वर्णन निम्नप्रकार किया हैअर्थ “ जिसके घातिकर्म क्षय हो चुके हैं, जो अतीन्द्रिय हो गया है, अनन्त जिसका उत्तम वीर्य है और अधिक जिसका (केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप) तेज है वह (अरहंत) ज्ञान और सुखरूप परिणमन है 1 करता टीका - शुद्धोपयोग के सामर्थ्य से जिसके घातिकर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं, क्षयोपशमिक ज्ञान दर्शन के साथ असंपृक्त होने से जो अतीन्द्रिय हो गया है, समस्त अन्तराय का क्षय होने से अनन्त जिसका उत्तमवीर्य है, समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण का प्रलय हो जाने से अधिक जिसका केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज है - ऐसा यह आत्मा, समस्त मोहनीय के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वभाव वाले आत्मा का अनुभव करता हुआ स्वयमेव स्वपर प्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर परिणमित होता है । इसप्रकार आत्मा का ज्ञान और आनन्द स्वभाव ही है और स्वभाव पर से निरपेक्ष है इसलिए इन्द्रियों के बिना भी आत्मा के ज्ञान आनन्द होता है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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