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( सुखी होने का उपाय भाग-४ शुद्धता हो चुकी है, इस ही कारण वह परिपूर्ण सामर्थ्य की द्योतक है। उनकी जानकारी से हमारे निम्न प्रयोजन सिद्ध होते हैं - १. अरहंत भगवान के ज्ञान और सुख की जो सामर्थ्य आत्मा में विद्यमान थी, वही प्रगट हुई है। अत: वैसी ही सामर्थ्य मेरी आत्मा में भी हरसमय विद्यमान है। इसप्रकार मुझे मेरी सामर्थ्य का पूर्ण विश्वास जागृत हो जावेगा। २. गुण का परिणमन तो हरसमय होता ही रहता है। अत: उपरोक्त दोनों गुणों की दशा जो मेरे में प्रगट हो रही है अथवा अनुभव में
आ रही है, वह अरहन्त भगवान् के जैसी नहीं है। अत: सिद्ध होता है कि मेरी वर्तमान दशा यथार्थ दशा नहीं है। अत: अपनी पर्याय को उनके समान करने के उद्देश्य से यथार्थ मार्ग खोज करने की
आवश्यकता प्रगट होती है। ३. आत्मार्थी, उपरोक्त प्रकार से दोनों के अन्तर को समझ लेता है एवं उस अन्तर को अभाव करने की रुचि जागृत होती है तब उनके अभाव करने का मार्ग खोजता है। तथा गुणों के स्वाभाविक परिणमन के यथार्थ ज्ञान द्वारा अपने पुरुषार्थ की सफलता एवं शुद्धि की वृद्धि को भी नापता रहता है, और पूर्णता प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता रहता है।
इसप्रकार शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध आत्मा का यथार्थ ज्ञान होने से हमारे सर्वप्रयोजन सिद्ध होते हैं । इसी आशय का समर्थन प्रवचनसार की गाथा ८० में निम्नप्रकार किया है -
“जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयतेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥८० ॥
टीका - जो वास्तव में अरहंत को द्रव्यरूप, गुणरूप और पर्याय रूप से जानता है, वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है; क्योंकि दोनों में निश्चय से अन्तर नहीं है और अरहंत का स्वरूप, अन्तिम ताव
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