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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (८७ इसीप्रकार आचार्य महाराज ने सुख का लक्षण अनाकुलता (निराकुलता) कहा है। जिसप्रकार जीव को जानने के लिए ज्ञान लक्षण उपयोगी है, उसीप्रकार सुख को भी पहिचानने के लिए निराकुलता लक्षण उपयोगी है। आत्मा को सुख चाहिए । सुख का अनुभव भी आत्मा को ही होगा अर्थात् सुख का स्वाद भी आत्मा ही लेगा। सुख भी आत्मा का स्वभाव है, अत: उसका स्वाद (अनाकुलता) है । ज्ञान का तो मात्र जाननेरूप ही कार्य होता है, उसमें विपरीतता नहीं होती। ज्ञान जब स्वपनेपूर्वक आत्मा को जानने में कार्यशील होता है तो सुखगुण का भी निराकुलतारूप स्वाभाविक परिणमन होता है और जब इसके विपरीत वही जब पर को स्व मानता है तो आकुलतारूपी दुःख का परिणमन होने लगता है। इसलिए ज्ञान का यथार्थ स्वरूप जानना जरूरी है, अन्यथा जानन क्रिया के साथ ज्ञेय का मिश्रण हो जाने पर हम उसको ही आत्मा का स्वरूप मान लेंगे, तब आत्मा को कैसे पहिचान पावेंगे? इस ही प्रकार जीव को सुख चाहिए, अगर सुख का यथार्थ लक्षण समझ में नहीं आवेगा तो वह दुःख की आंशिक कमी को ही आत्मा का सुख मानकर संतुष्ट हो जावेगा और यथार्थ सुख से वंचित रहेगा। तात्पर्य यह है कि आत्मा अनन्त गुणों से समृद्ध होते हुए भी हमको उनमें से ज्ञान एवं सुख गुण का यथार्थ स्वरूप अवश्य समझना चाहिए। मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिए दोनों अत्यन्त प्रयोजनभूत हैं। जिसप्रकार शुद्ध स्वर्ण के स्वरूप को समझने के लिए उसके स्वरूप को समझना आवश्यक होता है, उस ही प्रकार जो आत्मा पूर्णदशा को प्राप्त हो चुकी है, जिनके द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों शुद्ध हो चुके हैं, ऐसी आत्मा के स्वरूप को समझना, अपने स्वभाव समझने के लिए अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। अरहंत भगवान एवं सिद्ध भगवान की आत्मा ही ऐसी आत्मा है जिनकी आत्मा में उपरोक्त गुणों की पूर्ण प्रगटता एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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