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________________ ८६ ) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ अर्थ – “जिनके घातिकर्म नष्ट हो गए हैं, उनका सुख (सर्व) सुखों में परम अर्थात् उत्कृष्ट है - ऐसा वचन सुनकर जो श्रद्धा नहीं करते; वे अभव्य हैं और भव्य उसे स्वीकार (आदर) करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं ।” इसप्रकार मेरा आत्मा ही मेरे सुख का खजाना है, यह स्वीकार कर पर के प्रति उपेक्षाबुद्धि जागृत करने योग्य है । वास्तव में सुख (निराकुलता) तो आत्मा का स्वभाव होने से, उसकी पर्याय में से भी निरन्तर सुख का ही प्रवाह निकलना चाहिये, दुःख तो निकल ही नहीं सकता । फिर भी अज्ञानीजीव मिथ्या मान्यता से अपने अनाकुलस्वभावी प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न कर सुख को दुःख में परिवर्तित कर लेता है । निष्कर्ष यह है कि अज्ञानी स्वयं दुःख का उत्पादन करता है । वास्तव में सुख का तो उत्पादन करना नहीं है, वरन् दुःख का उत्पादन रोकना है। अतः उत्पादक कारणों का अभाव करने का पुरुषार्थ आत्मा को करना चाहिए । यही एकमात्र सुखी होने का उपाय है । ज्ञान एवं सुख से परिपूर्ण आत्मा का स्वभाव अरहंत के समान प्रश्न -- आत्मा ज्ञानस्वभावी एवं सुखस्वभावी होने पर भी उसके परिणमन में विपरीतता क्यों ? उत्तर आत्मा के ज्ञानस्वभाव का एवं ज्ञेयों का स्वरूप भलेप्रकार समझना चाहिए। आत्मा एक पदार्थ द्रव्य है, वह अनन्त शक्तियों (गुणों) से सम्पन्न है । वे अनन्त शक्तियाँ निरन्तर परिणमन करती हुईं अर्थात् अपनी कार्य क्षमता को प्रदर्शित करती हुईं विद्यमान हैं। उनमें से ज्ञान का कार्य निरन्तर प्रकाशमान दिख रहा है, ज्ञानप्रकाश के द्वारा ही आत्मा (जीव ) को पहिचाना जाता है। आचार्यों ने भी जीव को पहिचानने के लिए लक्षण के रूप में ज्ञान का ही प्रयोग किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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