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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (८५ सुख भी हो सकता है? इस के कारण वह आकुलता के उत्पादक कारणों का पता भी नहीं लगाता फलत: कारणों के नाश का उपाय भी नहीं हो पाता, दुःख ही दुःख का भोक्ता बना रहता है । ऐसे जीव को अगर सत्शास्त्रों के अध्ययन, सत्समागम आदि के द्वारा यह समझ में आ जावे कि मेरा सुख तो मेरे आत्मा में ही है, सुख तो मुझे उसमें से ही प्राप्त होगा, जो मेरे द्रव्य में होगा वही तो पर्याय में आवेगा, मेरा सुख अन्य ज्ञेयों के पास है ही नहीं तो वे सुख दे भी कैसे सकेंगे? इत्यादि विश्वास जमने से उसके आकर्षण का केन्द्र आत्मा ही बन सकेगा और निराकुलतारूपी सुख प्राप्त करने का लक्ष्य भी बना लेगा। निराकुलतारूपी सुख की पराकाष्ठा ही मोक्ष है और उसको प्राप्त करने का उपाय ही मोक्षमार्ग है। इसप्रकार समस्त द्वादशांग, एकमात्र मोक्ष का मार्ग अर्थात् शाश्वत सुख का मार्ग बतलाने वाला ही है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा भी है- “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" इसप्रकार यह स्पष्ट है कि प्राणीमात्र को सुख चाहिए और उस सुख का भण्डार (खजाना) तो स्वयं मेरा आत्मा ही है सिद्ध भगवान को जो सुख प्रगट हुआ, वह भी उन्हीं के आत्मा में से निकला है। सुख की पराकाष्टा सिद्ध भगवान को प्रगट हुई है। अत: सुख के लिए मुझे एक अपने आत्मा का ही शरण लेना चाहिए, उपासना करनी चाहिए। प्रवचनसार की गाथा १३ में कहा है कि - अर्थ – “शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं का (केवली और सिद्धों का) सुख, अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत (अतीन्द्रिय) अनुपम अनन्त (अविनाशी) और अविच्छिन्न (अटूट) है। १३ ॥” इसप्रकार आत्मा ही सुख का भण्डार है, यह ही परमसत्य है, परवस्तुओं में मेरा सुख है ही नहीं; अत: विषयों में से भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। प्रवचनसार की गाथा ६२ में भी दृढ़ता से कहा है - For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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