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________________ ८४) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ ऐसा जीव जब एकबार उस आनन्द रस का स्वाद चख लेता है, तब उसकी श्रद्धा सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाती है और विश्वास जम जाता है कि मेरा सुख तो मेरे में ही है। उसके कारण उसको ज्ञेयमात्र में सुख नहीं भासता; इसलिए सुख की खोज में भटकने की बुद्धि का भी अभाव हो जाता है और निरन्तर आत्मतृप्ति बनी रहती है। ज्ञेयमात्र के प्रति उदासीनता अर्थात् उपेक्षा एवं जगत से उदासीनता वर्तती रहती है; इसही को व्यवहार आचरण की संज्ञा दी जाती है। ज्ञानी का अनन्तानुबन्धी के अभावात्मक परिणमन निश्चय चारित्र कहलाता है। चरणानुयोग इस ही का विस्तार है। ___ इसप्रकार उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि सुख नामक शक्ति आत्मा में है, जिसका लक्षण अनाकुलता है। अनाकुलता ही आत्मा का स्वभाव है । स्वभाव स्वभाववान से कभी भी अलग नहीं होता अत: आत्मा भी अनाकुलतारूपी सुख से कभी अलग नहीं हो सकता। इसलिए जो भी निराकुलता (आकुलता की कमी) अनुभव में आ रही है, वह सब सुख शक्ति का ही स्वाभाविक प्रदर्शन है। आत्मा का अनाकुल अर्थात् सुखी रहने का स्वभाव है । अत: वह निरन्तर अनाकुलरूप ही रह सकता है और रहता हुआ हमारे अनुभव में भी आता है। जब यह आत्मा अपने ज्ञातास्वभाव को भूलकर परज्ञेयों के साथ सम्बन्ध जोड़ता है तो उनमें से किसी को रखने रूप अथवा किसी को दूर करने रूप (हटाने रूप) प्रयत्न करता रहता है वह प्रयत्न ही स्वयं आकुलता है, वह प्रयत्न के अनुसार तीव्र अथवा मंद होती रहती है। इसके अतिरिक्त वह ज्यादा काल ठहरती भी नहीं, आकुलता, अभाव करने की ओर ढलने लगती है। लेकिन अज्ञानी जीव एक के बाद दूसरे ज्ञेयों के प्रति अथवा एक साथ अनेक ज्ञेयों के प्रति उपरोक्त प्रकार के प्रयत्न करने लग जाता है, अत: उसको निराकुलता तक पहुँचने का अवसर ही प्राप्त नहीं हो पाता । अनादिकाल से इसीप्रकार करता चला आ रहा है। अज्ञानी आकुलता की मंदता को ही सुख मानकर संतोष कर लेता है। ऐसा इसको लगता ही नहीं है कि अनाकुलतारूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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