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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( ८३ द्रव्य में है, जिससे सभी शक्तियाँ द्रव्य में रहती हैं । द्रव्य का स्वभाव ही उत्पादव्ययधुवरूप है, जब द्रव्य ध्रुव रहते हुए परिणमन हर समय करेगा तो उसमें बसे हुए अनन्तगुण अर्थात् शक्तियाँ भी परिणमन करे बिना नहीं रह सकतीं; फलतः द्रव्य की हरएक शक्ति निरन्तर बदलती ही रहती है । आत्मा भी एक द्रव्य है और वह उसमें बसे हुए अनन्तगुणों अर्थात् शक्तियों के समुदायरूप है । उसमें अनन्त शक्तियों में ही "सुख" नामक शक्ति भी है। जब द्रव्य शाश्वत सत् है तो उसकी सुख नाम की शक्ति भी त्रिकाल शाश्वत है। हर समय द्रव्य जब परिणमन करता है तो उसके सभी गुणों का परिणमन भी हुए बिना रह ही नहीं सकता। हमारे जो अनुभव में आता है वह परिणमन ही आता है। अतः स्पष्ट है कि सुख नाम की शक्ति भी निरन्तर परिणमन करती ही रहती है, उसका अनुभव ही हमको निरन्तर आता है । सुखशक्ति का स्वाभाविक प्रकाशन तो निराकुलतारूप ही होता है और आकुलतारूप परिणमन तो उसका विभाव रूप परिणमन है। ज्ञानीजीव के अनुभव द्वारा अनाकुल स्वभाव प्रमाणित भी हो जाता है । 1 ज्ञानीपुरुष ने ज्ञेयमात्र से अपनत्वबुद्धि का अभाव कर अपने ज्ञायक तत्त्व में अपनत्व स्थापन कर लिया है। फलतः ज्ञेयमात्र के प्रति परत्व बुद्धिपूर्वक उपेक्षितबुद्धि हो जाने से ज्ञान की परसन्मुखवृत्ति टूट जाती है और स्वज्ञेय की महिमा बढ़ जाने से उसके प्रति आकर्षण हो जाता है । फलस्वरूप आत्मा के उपयोग को स्वज्ञेय ही शरण लेने का एकमात्र स्थान रह जाता है । अत: जब यह उपयोग आत्मा में एकाकार होता है तब अपने ज्ञायक तत्त्व के अतिरिक्त अन्य ज्ञेयमात्र का तो अभाव रहता है। पर की ओर जाने का उत्साह निवृत्त हो जाने से ज्ञेयपरिवर्तन का भी अभाव होता जाता है; फलत: निराकुलता रूपी सुख का आस्वादन हो जाता है। इसी को स्वसंवेदनज्ञान कहा जाता है, आत्मा का अनुभव भी कहा जाता है । आत्मानन्द का अनुभव ही स्वसंवेदन ज्ञान का लक्षण है। ऐसी दशा प्राप्त हुए बिना सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्म की उत्पत्ति नहीं होती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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