________________
यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (७५ हो, किसी जीव के अन्य कुछ भी प्रयोजन नहीं है।” धर्म भी किया जाता है तो वह भी मात्र सुख प्राप्त करने के लिए ही किया जाता है। धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन का मूल है कि मैं आत्मा ज्ञानस्वभावी ज्ञायक मात्र हूँ ऐसी श्रद्धा जागृत होकर, ज्ञेयमात्र के प्रति परपना आकर सबकी ओर से वृत्ति सिमटकर आत्मसन्मुख होकर आत्मानुभूति प्रगट हो । अत: जब तक ऐसा विश्वास अर्थात् श्रद्धा जीव को जागृत नहीं होगी आत्मानुभति भी नहीं होगी। सुख की प्राप्ति भी नहीं होगी; और तब तक उसके आकर्षण का केन्द्र भी आत्मा नहीं बन सकता। सारांश यह है कि अभी तक मैंने परवस्तुओं को सुख का दाता माना हुआ था लेकिन उनसे सुख प्राप्त होता ही नहीं है, अपितु दुःख ही प्राप्त होता है । मैं अभी तक जिसको सुख मानता चला आ रहा हूँ वह तो आकुलता रूप है, अत: दुःख ही है; ऐसी श्रद्धा जाग्रत हो जाना चाहिये।
प्रश्न - वास्तविक सुख क्या है एवं वह कहाँ से प्राप्त होगा?
उत्तर - आत्मार्थी को अगर यह विश्वास जम जावे कि वास्तव में सुख तो निराकुलता ही है और उस सुख का खजाना मेरा आत्मा ही है, तो आकर्षण का केन्द्र, निश्चित रूप से अपना आत्मा ही हो जावेगा। इसलिए निम्न विषयों का निर्णय करना चाहिए। (१) सुख का लक्षण आकुलता है अथवा निराकुलता? (२) वह सुख कहाँ से प्राप्त होगा।
सुख का लक्षण निराकुलता ही क्यों? पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला की तीसरी ढाल में सुख का लक्षण निराकुलता ही बताया है - “आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये।"
जब जीव को किसी भी कारण से आकुलता होती है तो वह अपने को दुःखी अनुभव करता है और जंब वह कम हो जाती है तब अपने को सुखी मानने लगता है, यह सबके अनुभव में भी है । अत: यह तो निर्विवाद है कि सारा जगत् आकुलता को ही दुःख मानता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org